मुक्तांगन – एक व्यसन मुक्ति केंद्र की कहानी : डॉ अनिल अवचट | Muktangan – Ek Vyasan Mukti Kendra Ki Kahani : Dr Anil Avachat के बारे में अधिक जानकारी :
इस पुस्तक का नाम : मुक्तांगन - एक व्यसन मुक्ति केंद्र की कहानी है | इस पुस्तक के लेखक हैं : Arvind Gupta | Arvind Gupta की अन्य पुस्तकें पढने के लिए क्लिक करें : Arvind Gupta | इस पुस्तक का कुल साइज 2.1 MB है | पुस्तक में कुल 194 पृष्ठ हैं |नीचे मुक्तांगन - एक व्यसन मुक्ति केंद्र की कहानी का डाउनलोड लिंक दिया गया है जहाँ से आप इस पुस्तक को मुफ्त डाउनलोड कर सकते हैं | मुक्तांगन - एक व्यसन मुक्ति केंद्र की कहानी पुस्तक की श्रेणियां हैं : inspirational, Stories, Novels & Plays
Name of the Book is : Muktangan - Ek Vyasan Mukti Kendra Ki Kahani | This Book is written by Arvind Gupta | To Read and Download More Books written by Arvind Gupta in Hindi, Please Click : Arvind Gupta | The size of this book is 2.1 MB | This Book has 194 Pages | The Download link of the book "Muktangan - Ek Vyasan Mukti Kendra Ki Kahani" is given above, you can downlaod Muktangan - Ek Vyasan Mukti Kendra Ki Kahani from the above link for free | Muktangan - Ek Vyasan Mukti Kendra Ki Kahani is posted under following categories inspirational, Stories, Novels & Plays |
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वर्ष 1985 कौ एक दोपहर
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पु. ल. के नाम के साथ साथ सुनंदा और डॉ. संभाजी जाधव ( उन्हें अक्सर काम से मुम्बई जाना पड़ता था) के प्रयासों का सरकारी व्यवस्था पर कुछ असर पड़ा। संभाजी एक सीधे-सादे और खुशमिजाज डॉक्टर थे। अन्य लोगों द्वारा साथ छोड़ देने के बाद भी, वे सुनंदा के साथ खड़े रहे। सुनंदा जैसे आज वो भी इस दुनिया में नहीं हैं। । बाद में सरकार ने सुनंदा के प्रकल्प को, कुछ शतों के साथ स्वीकृति दी। सुनंदा इमारत का उपयोग कर सकती थी पर स्टॉफ के वेतन की उसे खुद जुगाड़ करनी थी। स्टॉफ बाद में, सरकारी कर्मचारी होने का कोई लाभ भी नहीं उठा सकते थे।
अब एक नई समस्या उठ खड़ी हुई। पु. ल. का अनुदान किस संस्था को जाए? उनके अनुदान को लेने वाला कोई नहीं था। पैसों को प्रबंधन कौन करेगा? | पु. ल. देशपांडे प्रतिष्ठान जरूरतमंद लोगों को धनराशि उपलब्ध कराने वाली संस्था थी। चो किस अन्य संस्था के कामकाज में दखलंदाजी कैसे कर सकती थी? अनुदान देते वक्त वो बस उस संस्था के कामकाज का मूल्यांकन करती थी, दखलंदाजी नहीं करती थी। प्रतिष्ठान ने अपने रोल को अच्छी प्रकार परिभाषित किया था। वो महज शुभचिंतक थे, संस्था के कार्यकर्ता नहीं।
पर क्योंकि वे भावनात्मक रूप से इस मुहिम से जुड़े थे इसलिए सुनीताबाई ने कहा, "तुम संस्था बनाने की शुरुआत करो। इसे बीच हम अपनी संस्था में तुम्हारे कर्मचारियों के वेतन और अन्य खर्चे का भुगतान करेंगे।"
यह सुनकर मैं चकित रह गया। वो हमारे काम में हाथ बंटाने को तैयार थे। इससे उनके काम का लोड और परेशानियां और बढ़तीं। पर उन्होंने सालों साल हमारी मदद की और मुक्तांगन के स्टॉफ की संख्या बढ़ने के बाद भी उनका लगातार चेतन देते रहे। पु. ल. देशपांडे प्रतिष्ठान हर माह वेतन के चेक्स देता। सुनीताबाई स्टॉफ के नाम और वेतन के हिसाब से चेक्स बनातीं। हरेक चैक पर दोनों पति-पत्नी दस्तखत करते।
केंद्र के लिए सुनंदा ने नई इमारत की सफाई करवाई। मैंने मुक्तांगन के लिए पीले रंग का एल्मुनियम बोर्ड बनाया और उसे लगवाया। ड्रेनेज़ पाईप्स और शौचालयों की भी सफाई करवाई गई। इलेक्ट्रिशियंस ने टूटे बिजली के तारों को बदला। क्योंकि सुनंदा को स्टॉफ चाहता था इसलिए नई इमारत की पुताई तेजी से समाप्त हुई। स्टॉफ ने अच्छी तरह से केंद्र को रंगा। फर्श इतना गंदा था कि शक्तिशाली ऍसिड से रगड़ाई के बाद ही, उसका मूल रंग खिलकर उभरा।
सुनंदा ने अपनी प्रिय नस को, नए केंद्र के लिए चुना। स्टॉफ ने सारी औषधियों को एक कमरे में सजाया और दूसरे कमरे को भौतिक जांच के लिए तैयार किया। अस्पताल के पेंटर ने सनंदा के कमरे के बाहर एक विशेष नेमप्लेट लगा दी।