भारतीय इतिहास की रुपरेखा : जयचंद्र विध्यालंकार | Bhartiya Itihaas Ki Ruprekha Jild 1 : Jaichandra Vidhyakunkaar के बारे में अधिक जानकारी :
इस पुस्तक का नाम : भारतीय इतिहास की रुपरेखा है | इस पुस्तक के लेखक हैं : Jaichandra Vidhyakunkaar | Jaichandra Vidhyakunkaar की अन्य पुस्तकें पढने के लिए क्लिक करें : Jaichandra Vidhyakunkaar | इस पुस्तक का कुल साइज 255.1MB है | पुस्तक में कुल 584 पृष्ठ हैं |नीचे भारतीय इतिहास की रुपरेखा का डाउनलोड लिंक दिया गया है जहाँ से आप इस पुस्तक को मुफ्त डाउनलोड कर सकते हैं | भारतीय इतिहास की रुपरेखा पुस्तक की श्रेणियां हैं : history
Name of the Book is : Bhartiya Itihaas Ki Ruprekha Jild 1 | This Book is written by Jaichandra Vidhyakunkaar | To Read and Download More Books written by Jaichandra Vidhyakunkaar in Hindi, Please Click : Jaichandra Vidhyakunkaar | The size of this book is 255.1MB | This Book has 584 Pages | The Download link of the book "Bhartiya Itihaas Ki Ruprekha Jild 1" is given above, you can downlaod Bhartiya Itihaas Ki Ruprekha Jild 1 from the above link for free | Bhartiya Itihaas Ki Ruprekha Jild 1 is posted under following categories history |
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प्राचीन वाङमय के दो विभागों को ब्राह्मण और इत्रिय न कह कर अरी सौर इतिहास का जाता तो ठीक होता । उन में किसी बात के भेद का सात नहीं है, और यदि उस समय प्राय और क्षत्रिय अलग अलग अंशिया (classes} थी तो किसी प्रकार के भेष-भेद का भी प्रश्न नहीं है। क्योंकि यी और सदाश्रित वाङ्मय में क्षत्रियों का भी अंश ई-हिरण्थनान, जनक मावि राजा की कृतियों का स्वर्ष पाटिर ने स्थान स्थान पर उल्लेख किया है; और ऐतिहासिक वाड्मय में प्राप्त का भी अंश है—स्वयं कृष्ण द्वैपायन वेदव्यास भी ती ब्राह्मण ही थे। अयो-मामय और ऐतिहासिक वामय का पार्थक्य केबल अमविभाग को सूचित करता है; उन का मेद केवल ग्रचि का और चित्रयों का भेद है। इन दोनों भाभी में भी किसी प्रकार का विरोध या स्पर्धा नहीं थी। स्वयं पानीटर में इस बात के प्रमाण दिये है कि प्री-भारमन पुराण का बड़े अादर से स्मरण करता, इतिहास-पुराण को भी भेद कहता, यज्ञ में उस का पाठ करने का विधान करता, उस के दैनिक स्याप्याय का अनुयोग करता, उसे देवताओं को मधु दृथि बतलाता तथा अथर्व वेद को उस पर निर्भर करता है ( १० ३० दि० ५; पूः ५५,५५)। इस प्रकार के और प्रमाण नीचे ($ ११२) भी दिये गये है। इस पर भी यदि पुराणों में ऐसे स्थन हैं जो आाशिक वाङ्मय के कथनों में भिन्न है" (पृ॰ ४५), तो ऐसा मतभेद तो *भामयिक चाय के ग्रन्थों में परस्पर भी है, और उस का कारण यह है कि प्राचीन भायों में विचार को तथा सम्मत प्रकाशन की पूरी स्वतन्त्रता और गहरा विचारने की आदत थी। अतिर्विनिझा स्मृतो विनिशा नको गुनिया इन्च: अमाम् ।। | प्राचीन भारत में ऐतिहासिक घटनाओं का वा प्राचीन भारतीयों में ऐतिहासिक भुर्द का अभाव था, इन कथनों का मारल्यान जय हो चुका तर भाग्य था "णिक' वामन में ( vथान रखिये, भयौ बा
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