संस्कार : यू आर अनंतमूर्ति | Sanskar : U R Anantmurti के बारे में अधिक जानकारी :
इस पुस्तक का नाम : संस्कार है | इस पुस्तक के लेखक हैं : U R Anantmurty | U R Anantmurty की अन्य पुस्तकें पढने के लिए क्लिक करें : U R Anantmurty | इस पुस्तक का कुल साइज 5.6 MB है | पुस्तक में कुल 86 पृष्ठ हैं |नीचे संस्कार का डाउनलोड लिंक दिया गया है जहाँ से आप इस पुस्तक को मुफ्त डाउनलोड कर सकते हैं | संस्कार पुस्तक की श्रेणियां हैं : Stories, Novels & Plays
Name of the Book is : Sanskar | This Book is written by U R Anantmurty | To Read and Download More Books written by U R Anantmurty in Hindi, Please Click : U R Anantmurty | The size of this book is 5.6 MB | This Book has 86 Pages | The Download link of the book "Sanskar" is given above, you can downlaod Sanskar from the above link for free | Sanskar is posted under following categories Stories, Novels & Plays |
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केवल लक्ष्मणाचार्य ही ऐसा है जो अपने यहाँ लगे आधे से अधिक फलों को सबकी नजर बचाकर कोंकण वाले दुकानदार के यहाँ वे आता हैं। यह बड़ा ही कंजूस है। पत्नी के मायके से किसी के आ जाने पर वह गिद्ध-पष्टि से पत्नी के हाथों की ओर ही देखता रहता है। उसे हर बना रहता है कि वह कहीं आगत को कुछ दे न डाले ! चैत्र-वैशाख में हर घर में शरबत और 'कोशवीर'' बनाते-खाते हैं । कातिक में दीप-आरती के लिए एक-दूसरे को बुलाते हैं। नारणप्पा अकेला इन सबसे अलग रहता है। अग्रहार की गली के दोनों ओर कूल बस पर हैं। सबसे बड़ा घर नारणप्पा का ही है-वह एक किनारे पर बना है। बाज़ के घर वालों के पीछे से। तुंगा नदी बहती है। नयी तक उतरने के लिए पहले के कुछ बानी पुरुषों ने सीढ़ियां बनवायी हैं। श्रावण में तुंगा में बाढ़ आती है तो लगता है कि नदी अपहार में घुस आयेगी, किन्तु तीन-चार दिन तक अपना जीश-सराण और गहरे भंवर दिसलाकर, बच्चों की खुशी का कारण बनती, फिर उतर जाती है। जब गरमी में फटकर तीन धाराओं में बहने लगती है, तब ब्राह्मण रेत में ककड़ी-तरबूज की खेती कर लेते हैं और बरसात में कुछ और तरकारियों पैदा कर लेते हैं। वर्ष-भर यह हरी-भरी कड़ियाँ केलों के पत्तों में लिपटी छत से लटकती रहती हैं। वर्षा-काल में उन्हीं से बनायी गयी सान-भाजी, सांभर, चटनी और उसके दीजों से बने 'रसम्" को वे उपयोग करते हैं। गर्भवती स्त्रियों की तरह ये ब्राह्मण सभर की खट्टी चटनी के लिए लालायित रहते हैं। बारह महीनों व्रत, शादी-ब्याह, यज्ञोपवीत, श्राद्ध, बरसियाँ—कुछ-न-कुछ पलता ही रहता है। टीकाचार्य के जन्म-दिवस जैसे बड़े उत्सव के अवसर पर सीस मील दूर स्थित मठ में सहभोज होता है। इस तरह ब्राह्मणों का जीवन सरलता से बीतता चलता है।
इस अपहार का नाम है दुर्वासापुर। इसके साथ एक पौराणिक कथा
जुड़ी हुई है। तुगा नदी के बीचोंबीच एक छोटे-से द्वीप में वृक्षों से लदी एक छोटी पहाड़ी है। कहा जाता है कि दुर्वासा वहाँ तपस्या करते थे। द्वापरयुग में एक विशेष घटना हुई। यहाँ से दस मील की दूरी पर स्थित कैमर नाम की जगह पर थोड़े समय तक वनवास के दिनों में पाण्य के थे। अपनी स्त्री की सभी इच्छाओं को पूरा करने वाले भीमसेन ने तुंगा नदी के प्रवाह को रोक दिया। इधर स्नान और संध्यावन्दन आदि के लिए सुबह दुर्वासा नदी पर आ गये तो देखते क्या हैं कि नदी में पानी ही नहीं है। वे कुपित हो गये। धर्मराज युधिष्ठिर को अपनी दिव्य-दृष्टि से इसका पता चल गया। उन्होंने भीमसेन को समझाया। हमेशा अपने भाई की बात मानने वाले वायु-पुत्र ने अपने बनाये बाँध को तीन जगहों से तोड़ दिया। अभी तक कैगर में नदी बांध से निकलकर तीन धाराओं में बहती है। दुर्वासापुर के ब्राह्मण अड़ोस-पड़ोस के अग्रहारों में रहने वाले ब्राह्मणों को सुनाते हैं कि द्वादशी के दिन प्रातःकाल पुण्यात्माओं को दुर्वासावन से अभी भी शंखध्वनि सुनायी देती है। किन्तु दुर्वासापुर के ब्राह्मणों ने यह शंस-ध्वनि कभी स्वयं सुनी हो, ऐसा कहकर वे कभी डीग नहीं हाँकते !
पौराणिक महत्त्व का स्थल होने और महातपस्वी, ज्ञानी, बेदान्तशिरोमणि प्राणेशाचार्य के यहाँ आकर बस जाने, और फिर चाण्डान-सम नारणप्पा की करतूतों के कारण यह अग्रहार दसों दिशाओं में ख्याति पा चुका है। आचार्यजी के मुख से पुराणों की कथाएँ सुनने के लिए रामनवमी के दिन पास-पड़ोस के अग्रहारों के ब्राह्मण और दिनों से भी अधिक संख्या में जमा होते हैं। प्राणेशाचार्य के लिए मारणप्पा बड़ी समस्या बन गया। था। भगवान् की कृपा से मिला कर समझकर, रोगग्रस्त पी की सेवा-भूषा में लीन रहते हुए, नारणप्पा के दुव्र्यवहारों को सहते हुए, धर्म और कर्म के अयं से अनभिज्ञ ब्राह्मणों के मस्तिष्कों में भरे अहंकार को शास्त्र-स्यास्पा से दूर करते हुए, प्राणेशाचार्यजी अपने गृहस्थाश्रम का कठोर चन्दन-काष्ठ घिसकर, अपने जीवन और कर्तव्यों को अधिक सुगन्धित करते चल रहे थे।
1. मुंग की पूजी हुई दाल पानी में भिगोकर गरम करते हैं। फिर उसमें नमक,
हरी मिर्च और ज्ञानकर बनाया हुआ || माघ ।
उधर ब्राह्मण ऐसी चिलचिलाती धूप में, जिसमें मकई के दाने भी भुज