वेद और स्वामी दयानंद : गाजी महमूद हिंदी पुस्तक | Ved aur Sami Dayanand : Ghazi Mehmood Hindi Book के बारे में अधिक जानकारी :
इस पुस्तक का नाम : है | इस पुस्तक के लेखक हैं : Dayanand saraswati | Dayanand saraswati की अन्य पुस्तकें पढने के लिए क्लिक करें : Dayanand saraswati | इस पुस्तक का कुल साइज 10.04 MB है | पुस्तक में कुल 50 पृष्ठ हैं |नीचे का डाउनलोड लिंक दिया गया है जहाँ से आप इस पुस्तक को मुफ्त डाउनलोड कर सकते हैं | पुस्तक की श्रेणियां हैं : dharm
Name of the Book is : | This Book is written by Dayanand saraswati | To Read and Download More Books written by Dayanand saraswati in Hindi, Please Click : Dayanand saraswati | The size of this book is 10.04 MB | This Book has 50 Pages | The Download link of the book "" is given above, you can downlaod from the above link for free | is posted under following categories dharm |
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| है ह हो सकता । जबकि आपको गज़ भर लम्बे पाजासे या कई गज़ लम्बे तेडबंद या धोत्ती की ज़रूरत है। आप अपने अज़ीज़ों को ग़ालिबन यहीं जवाब देंगे कि अगर आप पसन्द करते हैं कि मैं पुराने कुर्ते को ज़रूर पहनुं तो बराये ख़ुदा इसको इतना कुशादा कर दो या मुझे इजाज़त दो कि मैं इसको इतना कुशादा कर लूँ कि ये मेरे बदन पर फिट आ जाये । लेकिन अगर वह अज़ीज़ और आशना उन दोनों बातों में से एक को भी सानने के लिए तैयार नहीं होते तो आपका फुर्ज़ होना चाहिए कि आप इसको दूर फेंक दें और इसको पह़नने से कृ्ताई इन्कार कर दें । आप इसको फेंक देने की बिना पर सुलज़िम या बेवकूफ नड़ीं गरदाने जा सकते । बल्कि मुलज़िम या बेवकूफ वह शख़्स डै जो आप से इसरार करता है कि आप इसी पुराने कुर्ते को पहनें। जब दो बालिश्त कपड़े की बाबत इन्सानों का यढ़ डाल है तो ये किस कदर जुल्म और अंधेरे की बात है कि किसी मुहक़्ककू इन्सान के ख़्यालात की वुसझत को देखकर उस पर ये फुतवा पास किया जाये कि चूंकि इसने पढ़ले ख़्यालात को तर्क कर किया है इसलिये वह गुमराह या नावाँ है और इसकी यगुसराही या नादानी को बलाईल से साबित न किया जाये । वह लोग जो वेदों को ख़ुदा का कलाम सानते हैं वह मेरे ख़्यालात की वुसअझत या आज़ादी पर बना इसी किस्म का फृतवा पास कर रहे हैं । वह कढ़ते हैं कि आज से नौ साल पेशतर तुम ने वेदों को ख़ुदा का कलास तसलीस किया था। तुम कैसे गुमराह हो जो आज तुम इस पुराने कुर्ते को जो ख़ुदावंदे कुद्ठस ने इन्सान के बचपन के ऊव्वलीन हिस्से में तैयार किया था पढ़नने से इनकार करते ह्लो। सगर मैं कहता हूँ कि मैं अब बुलन्द कद हो गया हूँ। अब ये इन्सानी बचपन का कुर्ता मेरे नंग को ढांप नहीं सकता बल्कि जिस तरह किसी ज़माने में ये कुर्ता सेरे दिल और दिमाग़ के लिये राहत बख़्श था क्योंकि ये इस वक़्त मेरे ऐन फ़िट खाता था। इसी तरह अब ये फिट न होने के बाइस मेरे दिल और दिसाग़ के लिए तकलीफ देह हो रहा है। इसलिये कि ये बद्ुत्त तंग है और मैं ज्यादा नशोनुमा पा गया हूँ। जब मैं ये जवाब देता हूं तो मुझे ताना दिया जाता है कि हमारे तुम्हारे ऋषि मुी इस कुर्ते को पहनते और इसको ख़ुदा का कलाम मानते चले आये हैं लेकिन तुम क्या उनसे बढ़कर हो जो ऐसी बातें बनाते हो। मुझे ताना माकूल सालूम नहीं होता जबकि तारीख शहादत देती है कि पुराने ऋषि मुी जंगलों में रहने के वाइस या तो अपने नंग को ढांपने की श्वेद और स्वामी दयानन्द 12 चन्दाँ जरूरत नहीं समझा करते थे या दो बालिश्त भर लंगोटी या भोजपत्न से ही आगा पीछा ढांककर युज़ारा कर लेते थे। लेकिन मुझे कोई सझकूलियत नहीं है कि चूँकि पुराने ऋषि सुनी ऐसा करते थे इसलिये मैं भी आज बालिश्त भर लंगोटी या भोजपत्नर को आगे पीछे टांगकर घुमता फिसेँ । अगर ऋषि सुनी वेदों को ख़ुदा का कलाम सानते थे तो मुल्की नस्ली या पैदाईशी तअस्सुबात की बिना पर ऐसा मानने की लिये मजबूर थे। जबकि वह डकृू व डक़्कानियत्त की तलाशी के लिये इस आला सैयार से औआरी थे जो कि सिस्टर हरबर्ट स्पैन्सर के अल्फाज़ में दिखाया जा चुका है । आज के बरअक्स जो मुहक्किक मुल्की नस्ली या पैदाईशी तअस्सुबात से आज़ाद थे । उन्होंने वेदों को ख़ुदा का कलाम सानने से इन्कार कर दिया । बौद्ध और चारदाक के मसुढक़्किकृ वुस्ता जमाने की ज़िन्दा शहादत हैं। और ब्रह्म समाज वेदों की कलामे इलाढ़ी न होने के बारे सें ज़साना-ए-हाल का एक ज़िन्दा और ज़बरदस्त प्रोस्टेंट हसारी आँखों के सामने मौजूद है । वेदों को ख़ुदा का कलाम सानने वालों की तरफ से बुद्धों जैनियों और चारदाक के मुड़क़्किकों पर ये इल्ज़ाम लगाया जाता है कि वह दाम सार्गी थे हालांकि ये इल्ज़ास कोई बुनियाद नहीं रखता । लेकिन अगर एक सिनट के लिये इस इल्ज़ास की सदाकृत को तसलीस भी कर लिया जाये तो ब्रह्मों समाज के मुड़क््कृकीन को इसी इल्ज़ास से रद्द करने की कोशिश करना यकीनन अपने आप को कानून की ज़बरदस्त ज़॑ंजीरों से जकड़ना है जबकि ऊग्रले वाकिफका ये ड्ो कि ब्रड़सो समाज के इस किस्म के तमाम मुहक््कृकू उन उ्ूब से पाक थे जो कि दास यार्गियों की तरफ मनसूब किये गये हैं और वह आला दर्जे की मज़हबी अख़्लाकी और मजलिसी ज़िन्दगी का नसुना थे। मेरे इस बयान से ये नतीजा नहीं निकालना चाहिए कि मैं बाद्ध जैनी चारदाक या ब्रहमो समाजी हूँ । मेरा इन सोसायटियों से कोई भी तऊअल्लुकू नहीं है। बल्कि मेरा मतलब इस बात पर रोशनी डालने से है कि जिन लोगों ने सुल्की नस्ली या पैदाईशी तअस्सुबात से आज़ाद होकर वेदों का मुतालेओा किया है उन्होंने उनको ख़ुदा का कलाम तस्लीम करने से इन्कार कर दिया है । मगर वेदों को ख़ुदा का कलाम मानने वालों की तरफ से फिर आवाज़ आती है कि जिन लोगों को तुम मुडक़्किकू कहते हो वह दर-डकीकृत मुडक्किक् नहीं थे और कि उन्होनें वेदों से लाइल्मी की वजह से मुँह फेर लिया । अगर छुस वेदों के बारे सें सही सही रोशनी हासिल करना चाहते हो गाजी महमूद धर्मपाल