आजीवन निरोगी कैसे रहें : डॉ प्रकाश ब्रह्मचारी हिंदी पुस्तक | Aajivan Nirogi Kaise Rahe : Dr Prakash Brahmchari Hindi Book के बारे में अधिक जानकारी :
इस पुस्तक का नाम : आजीवन निरोगी कैसे रहें है | इस पुस्तक के लेखक हैं : Prakash Brahmchari | Prakash Brahmchari की अन्य पुस्तकें पढने के लिए क्लिक करें : Prakash Brahmchari | इस पुस्तक का कुल साइज 27.68 MB है | पुस्तक में कुल 77 पृष्ठ हैं |नीचे आजीवन निरोगी कैसे रहें का डाउनलोड लिंक दिया गया है जहाँ से आप इस पुस्तक को मुफ्त डाउनलोड कर सकते हैं | आजीवन निरोगी कैसे रहें पुस्तक की श्रेणियां हैं : ayurveda, health, inspirational
Name of the Book is : Aajivan Nirogi Kaise Rahe | This Book is written by Prakash Brahmchari | To Read and Download More Books written by Prakash Brahmchari in Hindi, Please Click : Prakash Brahmchari | The size of this book is 27.68 MB | This Book has 77 Pages | The Download link of the book "Aajivan Nirogi Kaise Rahe" is given above, you can downlaod Aajivan Nirogi Kaise Rahe from the above link for free | Aajivan Nirogi Kaise Rahe is posted under following categories ayurveda, health, inspirational |
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दाँत बिना थके परिशरम करने की कषमता और उमंग सरदी -गरमी सहन करने की शकति चमकीले नेतर व तेज दृषटि साफ जीभ सीधी पतली कमर चौड़ी छाती पेट छाती से उभरा न हो गनध रहित शवाँस गनध-हीन पसीना गहरी नींद मुख का सवाद अचछा बार-बार खँखारना थूँकना न पड़े मल बँधा हुआ जो सरलता से शीघर विसरजित हो जाय परात उठने पर ताजगी पेट नरम सिर ठंडा पैर गरम होठ व नाखून गुलाबी आदि उततम सवासथय की पहिचान हैं । सवसथ वयकति की नाड़ी शकतिशाली होती है । पेशाब दुरगनध व जलन रहित हलके पीले रज़ का उंचित बार और उचित मातरा में होता है । मल हलका कालापन लिए कुछ-कुछ खुशक और बँधा हुआ होता है अरथात न॑ तो पतला न चिकना न सूखा-कड़ा । हाजत लगने पर शौच के लिए बैठते ही आसानी से मले शरीर से बाहर हो जाता है एवं लैटरीन-सीट में चिपकता नहीं है । आयुरवेद ने सवासथय की सथिरता के लिए अगनि जल और वायु को आधार-सतमभ माना है । अगनि को पितत जल को कफ और वायु को वात के नाम से वयकत किया जाता हैं । अत आयुरवेद में वह वयकति सवसथ माना जाता है--जिसके वात पितत व कफ सम हों पाचन शकति ठीक हो रस-रकत आदि सवचछ रूप से बन रहे हों निषकासन के सभी सथानों से मलों का निरवाध विसरजन होता हो और आतमा मन व इनदरियाँ परसनन सवसथ सुडौल एवं दरद जकड़न से रहित हों । सवासथय का सदुपयोग सवसथ मानव ही सरवांगीण विकास करके एक समृदध परबुदध परेम-मैतरी पूरण समाज की रचना करके देवों को भी दुरलभ सुख और अखणड आननद व रसमय जीवन परापत कर सकता है । ं सवासथय का लकषय भोगों का भोग मातर ही नहीं है इसका वासतविक उपयोग सुख-शानतिपूरण समृदधिगय जीवन के साथ अखणड आननद की परापति अथवा आतमबोंध की परापति या परमातमा से योग है। (10) १ सेवा के दवारा मानव समाज को भोगों के संयमपूरवक सेवन से अपने शरीर तथा जञान-वैरागय और भकति के दवारा अखिल बरहमाणड नायक सरवसमरथ परमातमा को भी संतुषट एवं परसनन कर सकता है और आवागमन के कषटों से मुकत हो सकता है । युकताहार-विहार से निरोग एवं सवसथ शरीर परापत करके विवेक पूरण चिनतन एवं विचारों से आप चिनताओं (1७॥अं015) जो जिनदे शरीर को ही जलाने वाली हैं बच सकते हैं । कारण कि चिनता मसतिषक में भासने वाला केवल कलपित रोग है । इसके उपचार के दो परमुख साधन हैं - परथम - सारवभौम माने जाने वाले मानव धरम - - धृति- कषमा दमो5सतेय शौचमिनदरिय निगनह घीरविदया सतय॑करोधो दसकं धरम लकषणम । ( मनुसमृति ) अरथात धैरय मय कैसा मन का नियननण चोरी न करना शारीरिक एवं मन का नियनतरण चोरी न करना शारीरिक एवं मानसिक पांचों जञानेनदरियों एवं करमेनदरियों का मान सक पवितरता पांचों जञानेनदरियों एवं करमेनदरियों का संयम विवेक आतम- अनातम एवं परमातम चिनतन विदया जञान-विजञान कलाएं एवं आधयातम विदया का अधययन एवं अनुशीलन सतय-चिनतन सतय-भाषण और उसी के अनुसार . सतयाधारण और करोध न करना । इन सभी लकषणों को पराय समसत विशव के मनीषी अपने अपने परकार से मानते एवं बताते हैं । दूसरा - अपने अपने समाजों के निरधारित नियम - देश काल परिसथितियों के अनुसार सारे विशव के मानव समाजों ने समृदधि सुख शानति परापति के लिये नियम निरधारित किये हैं । अत सुख शांति _ समृदधि परापत करने के लिये इनका भी पालन अनिवारय है । दोनों परकार के साधनों का रहसय - शरुयुतां धरम सरवसयं शरुतवा चैवाव धारयताम । दा आतमन परतिकू लानि परेषां न समावरेत ॥ सा वयवहार आप दूसरों से करना चाहते हैं वैसा यं ही 1 ही आप सवयं दूसरों (11)