एक और सीता : आलमशाह खान | Ek Or Sita : Alamshah Khan

एक और सीता : आलमशाह खान | Ek Or Sita : Alamshah Khan

एक और सीता : आलमशाह खान | Ek Or Sita : Alamshah Khan

एक और सीता : आलमशाह खान | Ek Or Sita : Alamshah Khan के बारे में अधिक जानकारी :

इस पुस्तक का नाम : एक और सीता है | इस पुस्तक के लेखक हैं : Aalamshah Khan | Aalamshah Khan की अन्य पुस्तकें पढने के लिए क्लिक करें : | इस पुस्तक का कुल साइज 8.5 MB है | पुस्तक में कुल 100 पृष्ठ हैं |नीचे एक और सीता का डाउनलोड लिंक दिया गया है जहाँ से आप इस पुस्तक को मुफ्त डाउनलोड कर सकते हैं | एक और सीता पुस्तक की श्रेणियां हैं : Stories, Novels & Plays

Name of the Book is : Ek Or Sita | This Book is written by Aalamshah Khan | To Read and Download More Books written by Aalamshah Khan in Hindi, Please Click : | The size of this book is 8.5 MB | This Book has 100 Pages | The Download link of the book "Ek Or Sita" is given above, you can downlaod Ek Or Sita from the above link for free | Ek Or Sita is posted under following categories Stories, Novels & Plays |

पुस्तक के लेखक :
पुस्तक की श्रेणी :
पुस्तक का साइज : 8.5 MB
कुल पृष्ठ : 100

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12 / एक और सीधा
बात से मुकर रहीं ये हमारी स्यानी बहू । सुनो ही मूसी जी ?"
"अरे, ये सब करेंगे । ये तु मुर्गे की डेढ़ टांग पे ना पहले जम सकी थी। मेरे संग और ना अब चल सकेगी इनके साथ।' अब्बू ने बीते दिनों की गई झाड़ते हुए जैसे उसे कुछ याद दिलाया।
| "हां, सही, बो मेरा नेम-त-संस्कार-घरम, ओ कहो, जस-का तस हैं। आज भी। इसे तो मैं घोड़ने की नहीं मरते दम तक।" बात का मूल समझ डसने हल दिया।
"मैंने तो तभी तुझे कह दिया था, के मैं शहंशाह अकबर नहीं जो 'जोधाबाई बना कर तुझे अपने मल-चौमहलों में रख सकें.''
"तो अब नौबत यहां तन्ह आन पहुंचीं के मुंशी जी अपना नाम हैसियत मुझे बताने लगे "बेटे-बहू के सामने अपना चिठ्ठा खुलवा के रहोगे, मुझसे ?' वह कुड़कुड़ाई तो अब्यु चुप हो गए।
"सास जी, जब आ ही गई, तो हो सहीं । वैसे भी अम्मां के न रहने से हुवेती के आंगन-चौबारे खाने दौड़े हैं। तुम्हारी सूरत में पोता-पोती दादी का हिया-जिया देख लेग और हुम'" बह कह गई।
“किस उजियारे कुल की लछमी लाई जे मुंसानी-'ये बहू तो मुझे ही अपने आंचल में भर रही।" इतना कहकर उसने बाह का माथा भूम लिया और बिट्टो का हाथ अपने हाथ में रखकर टिकारी दे नन्हे पोते को अपने पास बुलाने लगी। उसे में नेह-पगा देख बहू बोली, “चलो, अम्मा के बैठके में ही जमा दें तुम्हें ।"
| ‘सौ साल जिए तेरा मुहाग लाड़ो पे मैं कुल-बैरन अपनी मां की कोख में ही सात मास से आगे नहीं जम पाई तो अब अहां-कहां, कैसे जम पाऊंगी ''मुसी भी जाने हैं, खूब मेरा मानना' ''मेरी मरजाद'''इसीलिए तो मेरे आंचल में दो कट्टा मिट्टी भर कर बिसार गए मुझे । पे मैं कब बिचार पाई इन्हें ''आज आखिरी टैम, आंख भर देखने के लिए जाने कैसे तो आ गई गहां, तो तुम सब मेरी गोद में आ इले--पर मैं अब जाऊंगी, मुझे तो अब जाना ही है बेटे ! मुझे पहुंचा आओ रेलगाड़ी
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"हां, जी, इन्हें अम्मी जी के बैठके में ही पहुंचा आओ ।' सबने उसे

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