कुटनीमुत्तम काव्यम : दामोदर गुप्त | Kuttanimuttam Kavyam : Damodar Gupt | के बारे में अधिक जानकारी :
इस पुस्तक का नाम : कुटनीमुत्तम काव्यम है | इस पुस्तक के लेखक हैं : Damodar Gupt | Damodar Gupt की अन्य पुस्तकें पढने के लिए क्लिक करें : Damodar Gupt | इस पुस्तक का कुल साइज 22.5 MB है | पुस्तक में कुल 258 पृष्ठ हैं |नीचे कुटनीमुत्तम काव्यम का डाउनलोड लिंक दिया गया है जहाँ से आप इस पुस्तक को मुफ्त डाउनलोड कर सकते हैं | कुटनीमुत्तम काव्यम पुस्तक की श्रेणियां हैं : Misc, Poetry
Name of the Book is : Kuttanimuttam Kavyam | This Book is written by Damodar Gupt | To Read and Download More Books written by Damodar Gupt in Hindi, Please Click : Damodar Gupt | The size of this book is 22.5 MB | This Book has 258 Pages | The Download link of the book "Kuttanimuttam Kavyam" is given above, you can downlaod Kuttanimuttam Kavyam from the above link for free | Kuttanimuttam Kavyam is posted under following categories Misc, Poetry |
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(उस वाराणसी में मनसिज की शरीरधारिणी शक्ति-रूप में समस्त वैश्याओं में भूषण सी माती नाम की एक वारांगना निवास करनी थी)।
| मालती सर्वगुणसम्पन्ना थी परन्तु उसको इस बात का भि था कि वह समुचित रूप से पर्याप्त संख्या में कामुक तरुणां को अपनी ओर आकृष्ट नहीं कर पाती। मालती ने सोचा कि क्यों न यह इस विषय का सम्पूर्ण ज्ञान इन्त्र ने वाली द्धा कुडनी विकराला से जाकर अपनी शंकाओं का समाधान करे और प्रेमियों को आकृष्ट करने का उपाय पूछे। मालती विकराला के प्रर गई और उसके सामने अपनी समस्या रखो। उत्तर में विकराला ने वैशिक जीवन को सफल बनाने के उपायों से मालती को अवगत कराया। कवि दामोदर गुप्त ने निराला के मुंह से उदाहरणों और प्रमाणों से पृष्ट जो उपदेश दिलवाये वही इस ग्रंथ का वण्र्य विपत्र हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि विकराला में बालों को वैविक जीवन को सफल बनाने के लिए जो उपाय बताये वे मनोविज्ञान एवं शरीर विज्ञान की दृष्टि से अत्यन्त दुष्ट और कपट थे। वि दामोदर गुम्न ने तविषयक ग्रंथों एवं ऋषि-वाक्यों का गंभीर अन्योलन किया था । इसीलिए विकराला इतनी कुशलतापूर्वक स्त्री पुरुष के पौन-सम्बन्धी और वंशिक जीवन में सम्बद्ध बारीक से बारीक प्रश्नों का उत्तर दे सकी। इन प्रबन्ध कार्य में काव्य का विषय यद्यपि वैशिक जीवन ही है तथापि प्रसंगवश संगीत, नृत्य एवं नागकला पर भी सम्यक् प्रकाश पड़ा है। काव्य की दृष्टि से ती दामोदर गुप्त की यह रचना अत्यन्त उत्कृष्ट है ही, तत्कालीन सामाजिक जीवन पर भी इस प्रस्वर प्रकाश पड़ता है और हमारी जानकारी इस सम्बन्ध में बढ़ती है। विकराला जब अपना उपदेश समाप्त कर लेती है तो कवि का सर्वमंगलाकांक्षी हदग यकायक चौंक उठता है। उसे लगता है कि अब तक के सरगपुर्ण वर्णन से वहीं पाठकगण पथभ्रष्ट न हो जाये और वे वैविक जीवन के मोहक पाश में आबद्ध होने के लिए लालायित न हो उठे। दामोदर गुप्त को यहीं अपने कवि कर्म की याद आती है। और अन्तिम श्लोक में वह कह उग्रते हैं
काव्यमिदं यः शृणुते सम्मकाथ्यार्थपासनेनासौ।
नो वञ्च्यते क्बाचिद्विटवेश्याधूर्त कुट्टनीभिरिति । [इस काव्य को जो तपक्ति काव्यर्थ का सम्पक प्रकार से पालन करते हुये (रक्षण करते हुये) श्रवण करता है वह कभी भी विट, वेश्या, धूर्त एवं कुट्टनी से धोखा नहीं खाता]।
गहु कुट्टनीमतं काव्यम् काव्य की दृष्टि से अत्यन्त उत्कृष्ट रचना है। साथ ही तत्कालीन सामाजिक जीवन के अध्ययन की कुंजी भी हैं। इसमें कथाओं, उपकथाओं एवं अन्तकथाओं का सहारा लेकर कवि ने शास्त्रीय दृष्टि से इस समस्या पर विचार किया है और विकराला के मुख से विज्ञान सम्मत उपदेश दिलवाये हैं। ग्रंथ की उपयोगिता स्वयंसिद्ध है। इसकी लोकप्रियता निविवाद हैं।
मूल के साथ भाषानुवाद एवं आवश्यक टका टिप्पणियों के कारण हिन्दी पाठकों के लिए भी यह ग्रंथ बोधगम्य हो गया है। आशा है विज्ञ समाज में प्रस्तुत ग्रंथ समादृत होगा।
–श्रीकृष्ण दास