ताजमहल मंदिर भवन है : पी.एन. ओ़क. | Tajmahal Mandir Bhavan Hai : P.N.Oak

ताजमहल मंदिर भवन है : पी.एन. ओ़क. | Tajmahal Mandir Bhavan Hai : P.N.Oak

ताजमहल मंदिर भवन है : पी.एन. ओ़क. | Tajmahal Mandir Bhavan Hai : P.N.Oak के बारे में अधिक जानकारी :

इस पुस्तक का नाम : ताजमहल मंदिर भवन है है | इस पुस्तक के लेखक हैं : P.N.Oak | P.N.Oak की अन्य पुस्तकें पढने के लिए क्लिक करें : | इस पुस्तक का कुल साइज 17MB है | पुस्तक में कुल 137 पृष्ठ हैं |नीचे ताजमहल मंदिर भवन है का डाउनलोड लिंक दिया गया है जहाँ से आप इस पुस्तक को मुफ्त डाउनलोड कर सकते हैं | ताजमहल मंदिर भवन है पुस्तक की श्रेणियां हैं : Knowledge

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पुस्तक का साइज : 17MB
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जिनका
ताजमहल मन्दिर भवन । बने रहने देने के अतिरिका अन्य कोई विकल्प ही नहीं रह गया था, क्योंकि तो मूर्तिपूजक' का महल अपने अधीन किया था।
जो लोग यह तर्क देते हैं कि मुसलमान शासकगण अपने स्मारकों में - शैली और कला को स्वतन्त्रतापूर्वक अपनाने देते थे, उनको यह अवश्य विकरना चाहिए कि बीसवीं शताब्दी में भी जबकि रूढ़िवादिता की धार कुन्द हो । है, मुस्लिमों का कोई भी वर्ग अपना मकबरा या मस्जिद मन्दिर की शैली में बनाने को कल्पना अथवा साहस नहीं होगा।
हिन्द कर्मचारियों को नियुक्ति के आधार पर ताज के अलंकृत नमूनों में हिन्दू रूपांकन एवं पुष्प-सजावट की विद्यमानता को तर्कसंगत ठहराना दुसो आधा पर भी निरर्थक है। प्रचलित मुस्लिम अभिलेखों (जिन्हें हमने काल्पनिक सिद्ध का दिया है) में ताज के डिजाइनर तथा कलाकारों के रूप में मुस्लिम नामों की भी मूखी प्रस्तुत की है, हिन्दू कलाकृतियों के प्रति उनका प्रेम अथवा रुझान होने का तो प्रत ही नहीं। यह तो अवश्य स्मरण रखना चाहिए कि भारत के प्रत्येक मुस्लिम शासक का प्रथम एवं प्रमुख उद्देश्य भारतीय मन्दिर, कलाकृतियाँ, लेख, शास्त्र, संस्कृति और धर्म को नष्ट करना था। ऐसे शासक अपने स्मारकों में भारतीय कला के नमूनों और लक्षणों को किस प्रकार सहन कर सकते थे अथवा उनको प्रोत्साहन दे सकते थे? यह सब विचार हमको यह विश्वास दिलाने में समर्थ होने चाहिए कि इतिहासकारी तथा शिल्पज्ञों ने सामान्य रूप से ही व्यर्थ की धारणा पर मध्यकालीन मस्जिदों और मकबरों को मौलिक मुस्लिम निर्मिति समझकर उन भवनों के मूल को खोजने की आवश्यकता हो नहीं समझी।।
के सबसे बुरी बात है वह यह कि जब इन इतिहासज्ञों और शिल्पज्ञों को असा उदाहरण द्वारा अपनी भ्रान्ति का ज्ञान हुआ कि लिखित दावों के विपरीत ये भयान उन लोगों की मृत्यु से भी पहले विद्यमान थे, जिनके ये मकबरे समझे जाते है, तब उनने अनुमानतया यह स्पष्टीकरण दे दिया कि मृतक ने स्वयं ही मरणपूर्व अपनी का खुदवा ली थी, इस प्रकार माडू (मध्य भारत) में होशंगाह का मक्क, सिकन्दरा में अकबर का मकबरा और दिल्ली में गियासुद्दीन तुगलक मकबरा ये उन बाद वारा स्वयं बनवाए कहे जाते हैं जो किसी को भी
विश्वास करना भद्देपन की पराकाष्ठा है कि मृतक बादशाह ने स्वयं अपने मकबरे धनपाए। इससे तुच्छ और उपहासास्पद और कुछ नहीं हो सकता। सीधा, सत्य और अकाट्य स्पष्टीकरण यह है कि राजपूतों के बनवाए हुए पुराने भवनों को मुस्लिम बादशाहों को दफनाने के उपयोग में लाया गया। क्योंकि यह व्यावहारिक दृष्टि से उचित नहीं मालूम होता था कि जो अपने जीवनपर्यन्त शासन करते रहे उनके उत्तराधिकारियों द्वारा कोई उचित स्थान उनके दफनाने के लिए नहीं दिया गया। इसलिए उन उत्तराधिकारियों ने झूठे विवरण लिखकर रख दिए कि उन्होंने अपने पूर्वजों के मकबरे बनवाए गैसा कि जहाँगीर दावा करता है कि उसने अकबर का भकमरा बनवाया। इतिहासज्ञों और शिल्पज्ञों को अब पता लग गया है कि वे उल्लेख जहाँगीर और उस जैसे अन्यों के कि उन्होंने अपने पूर्वजों के मकबरे बनवाए, झूठे हैं और अपनी ही कथा को सत्य सिद्ध करने के लिए स्वयं ही भ्रमपूर्ण मन्तव्य प्रस्तुत कर दिए। अब समय आ गया है कि ऐसी विकृतियों एवं दोणों को, वे चाहे जानबूझकर किए गए हों अथवा सहज ही बन पड़े हों, उनकी भारतीय इतिहास की पुस्तकों में से निकाल दिया जाना चाहिए।
ताजमहल की आलंकारिक रेखाओं में यत्र-तत्र कमल तिरे पड़े हैं, हिन्दुओं के लिए कमल न केवल परम पवित्र हैं अपितु हिन्दू आलंकारिक कला के वे अभिन्न अंग हैं। उनकी विद्यमानता इस बात पर पुनः बल प्रदान करती है कि ताजमहल का मूल राजपूती ही है।
जयसिंहपुर नगर की चारदीवारीवाली दीवार भी बिना किसी व्यवधान के लगातार ताजमहल के चारों ओर विद्यमान है, यदि शाहजहाँ ने ताजमहल को मकबो के रूप में बनवाया होता तो उसकी चारदीवारी शान्ति एवं एकान्तता की दृष्टि से नगर की चारदीवारी से सर्वथा अलग और नई होती। क्योंकि ताजमहल चारदीवारी से सटा हुआ है अतः यह तथ्य हमारी इस खोज की पुनपुष्टि करता है। कि ताजमहल प्रासाद अथवा मन्दिर के रूप में नगर का ही एक भाग है। ताजमहल
प्रासाद अथवा मन्दिर) का मुख्य प्रवेश-द्वार भी जो आजकल ताजगंज कहा जाता है उसी विशाल द्वार की ओर से ही है। वाराणसी में काशी विश्वनाथ नाम से जाना मानवाला प्रसिद्ध शिव मन्दिर नगर का ही एक भाग है और उसका प्रवेश-द्वार नगर के अन्दर से ही है।
घाट और नावों के उतरने के स्थानों की ताज के निकट विद्यमानता भी इसी
अवश्यम्भावी निफर की ओर संकेत करती है कि ताजमहल प्रासाद ने २२ भूगर्भस्थ कमरे हाँ मकबो के लिए अनावश्यक है वहाँ प्रासाद में । निताना आपकता है। यही बात बसई स्तम्भ तथा अनेक संलग्न छ। उल्लेख पहले किया जा चुका है, के लिए भी लागू होती है।
| जबकि सब विवरण इस बात पर सहमत हैं कि शाहजहाँ के इसको लेने के पूर्व 'ताज'-सम्मति का स्वामी जयसिंह था, किन्तु वे इसके अधिग्रहण के समय में एकमत नहीं हैं। हम देख चुके हैं कि शाहजहाँ का दरबारी इतिहासकार मा अदुल हमीद लिखता है कि ताजप्रासाद का विनिमय शाहजहाँ के उपनिवेश में कहीं एक और अच्छे भूखण्ड के लिए किया गया था। किन्तु बी. पी. सक्सेना अपनी पुस्तक में लिखते हैं कि "भूखण्ड नाममात्र के मूल्य पर अधिग्रहण किया गया।" यह उल्लेखनीय है कि अब्दुल हमीद यह नहीं लिख पाया कि विनिमय में औन-सा भूखण्ड दिया जैसे कि सक्सेना यह नहीं लिख पाए कि कितना नाममात्र का मूल्य चुकाया गया।
| साह को प्रक्षिप्तांश अधवा झूठा वर्णन लिखने के लिए आदेश देने में किसी प्रकार का संकोच नहीं था। यह बात इतिहासकार जानते हैं। शाहजहाँ जम राजकुमार था तब उसने अपने शासक पिता जहाँगीर से विद्रोह किया था। अतः जहाँगीर की आज्ञानुसार लिखवाए गए जहाँगीर के शासन के वर्णनों में शाहजहाँ के विषय में अत्यन्त निकृष्ट तथा अपशब्दों का प्रयोग किया गया है। जब शाहजहाँ गहों पर बैठा उस समय आधिकारिक रूप में प्रसारित उस इतिहास की प्रतिलिपि सभी दरबारियों के पास विद्यमान थीं। इस प्रकार का विनाशक इतिहास, शाहज के शासन प्रारम्भ करने के उपरान्त भी दरबारियों के पास रहे, यह उसको सही नहीं या। इसलिए उसने जाली जहाँगीरनामा लिखने का आदेश दिया और उसे अपने पिता के आदेश पर लिखे गए इतिहास के स्थान पर प्रसारित करवाया। अतः । कोई आश्चर्य की बात नहीं कि यदि रहस्यमय ताजमहल बनाने का श्रेय प्राप्त करने लिश हो।
ताजमहल मन्दिर भवन है।
२०७ मारक हैं, जो मध्यकालीन भारत के समरूप यथा तथाकथित कुतुबमीनार और ताजमहल के समान है, इसलिए भारत के वे मुसलमान शासक ही हो सकते हैं। जिन्होंने इन स्मारकों का निर्माण कराया। इस विचार के पोषक यह सहज ही भुला देते हैं कि मुहम्मद गजनी, तैमूरलंग तथा अन्य आक्रामकों ने अभिलेखों में यह स्वीकार कर रखा है कि भारत में प्रवेश करते ही भारतीय नदियों के पाट देखकर ही उनकी आंखें फटी-सी रह गई। मन्दिरों और प्रासादों का तो कहना ही क्या । भारतीय निपुणता एवं श्रम की तुलना में पश्चिमी एशिया की भवन-निर्माणकला तो प्राथमिक अवस्था में ही थी। जब भारतीय क्षत्रियों ने पश्चिमी एशिया पर अधिकार किया तो उस समय विस्मयकारी स्मारकों का निर्माण किया गया। किन्तु उनके शासन में शिथिलता के कारण विद्रोह का युग प्रारम्भ हो गया। विस्तृत रूप से कोलाहल और विध्वंस के कारण अशान्ति फैली जिसमें समस्त कला और शिक्ष का विनाश हो गया। अपने भूखण्ड में जीवित रहने का साधन अनुपलब्ध होने के कारण और कोई भी कार्य शान्तिपूर्वक सम्पन्न न हो पाने के कारण बड़े-ब सरदारों के नेतृत्व में बड़े दलों के रूप में भारत जैसे समृद्ध देशों पर ललचाई आँ। दौड़ाई।
अपने आत्मचरित में तैमूरलंग ने लिखा है कि हिन्दुओं का संहार कर समय वह पत्थरों के कारीगर तथा भवन-निर्माण से सम्बन्धित अन्य कर्मचारी एक कलाकारों को छोड़ दिया करता था ताकि उन लोगों को पंजाब तथा अन्य उत्तर क्षेत्रों के मार्ग से पश्चिम एशिया में ले जाकर उनसे जैसे उसने भारत में विशाल स्मारक देख हैं, उनके समान भव्य मकबरे और मस्जिदें बनवाई जा सकें।
क्योंकि तैमूरलंग तथा अन्य आक्रमणकारी एक समान पद्धति का अनुसरण करते रहे इसलिए तैमूरलंग का पर्यवेक्षण उस पद्धति का परिचायक है जिसमें समस्त मध्यकालीन मुस्लिम आक्रमणकारी सैकड़ों और सहस्रों की संख्या ।। भारतीय शिल्पज्ञों को पश्चिम एशिया भेजकर उन्हें इस्लाम में परिवर्तित कर उन्हें वहीं बसाकर भारत से लूटे गए वैभव और उपकरणों के माध्यम से वे पश्चिम एशिया में स्मारक-निर्माण के लिए उन्हें विवश करते थे।

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