वैदिक साहित्य में विहित पौष्टिक कर्मों का आलोचनात्मक अध्ययन : शीतला प्रसाद द्वारा हिन्दी पीडीऍफ़ पुस्तक – आध्यात्मिक | Vaidik Sahitya Mein Vihit Paushtik Karmon Ka Alochnatmak Adhyayan के बारे में अधिक जानकारी :
इस पुस्तक का नाम : वैदिक साहित्य में विहित पौष्टिक कर्मों का आलोचनात्मक अध्ययन है | इस पुस्तक के लेखक हैं : Dr. Sheetla Prasad Upadhyay | Dr. Sheetla Prasad Upadhyay की अन्य पुस्तकें पढने के लिए क्लिक करें : Dr. Sheetla Prasad Upadhyay | इस पुस्तक का कुल साइज 67.1 MB है | पुस्तक में कुल 269 पृष्ठ हैं |नीचे वैदिक साहित्य में विहित पौष्टिक कर्मों का आलोचनात्मक अध्ययन का डाउनलोड लिंक दिया गया है जहाँ से आप इस पुस्तक को मुफ्त डाउनलोड कर सकते हैं | वैदिक साहित्य में विहित पौष्टिक कर्मों का आलोचनात्मक अध्ययन पुस्तक की श्रेणियां हैं : Spirituality -Adhyatm
Name of the Book is : Vaidik Sahitya Mein Vihit Paushtik Karmon Ka Alochnatmak Adhyayan | This Book is written by Dr. Sheetla Prasad Upadhyay | To Read and Download More Books written by Dr. Sheetla Prasad Upadhyay in Hindi, Please Click : Dr. Sheetla Prasad Upadhyay | The size of this book is 67.1 MB | This Book has 269 Pages | The Download link of the book " Vaidik Sahitya Mein Vihit Paushtik Karmon Ka Alochnatmak Adhyayan" is given above, you can downlaod Vaidik Sahitya Mein Vihit Paushtik Karmon Ka Alochnatmak Adhyayan from the above link for free | Vaidik Sahitya Mein Vihit Paushtik Karmon Ka Alochnatmak Adhyayan is posted under following categories Spirituality -Adhyatm |
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वेद भारतीय संस्कृति के आकर ग्रन्थ हैं । वेदों में समस्त पारलौकिक तथा जागतिक परा का मूल बीज सन्निहित है । समग्र रेहक, आमुष्मिक फल प्रदान करने वाले कृत्यों का मूल वेदों में ही प्राप्त होता है । वेद प्राचीनतम भारतीय संस्कृति के वश में तङ्गीन मानवीय भावनाओं तथा तात्गलिक समाज में प्रचलित विविध परम्पराओं का भी सम्यग् विवेचन अपनी स्तुतिया एवं अन्य विधान में प्रस्तुत करते है । पौष्टिक कर्म मानव को भौतिक समृद्धि प्रदान करने हेतु की गई संकल्पनाएं है । मानव को दैहिक अथवा लौकिक सुखा प्रदायक कर्मों में वैदिक पौष्टिक कर्म अद्वितीय है । सामान्यतया यह माना जाता है कि पौष्टिकादि कर्म अथवदीय साहित्य में ही प्राप्य है किन्तु वस्तुस्थिति इससे भिन्न है। ऋग्वेद से लेकर सूत्र गन्थीं तक पौष्टिक कर्मों का अस्तित्व पाया जाता है । अन्तर केवल । इतना है कि ऋग्वेद में यदि ये विधान बीज अवस्था में हैं तो यजुर्वेद में ये अ रित हो उठे हैं । सामवेद से लेकर अर्थविदीय साहित्य तक ये सम्यक् स्प से पुष्पित एवं पल्लवित हो गये हैं ।