अध्यात्मकल्प्रम : श्री वर्धमान | Adhyatmakalpdrum : Shri Vardhman के बारे में अधिक जानकारी :
इस पुस्तक का नाम : अध्यात्मकल्प्रम : श्री वर्धमान है | इस पुस्तक के लेखक हैं : | की अन्य पुस्तकें पढने के लिए क्लिक करें : | इस पुस्तक का कुल साइज 17.2MB है | पुस्तक में कुल 774 पृष्ठ हैं |नीचे अध्यात्मकल्प्रम : श्री वर्धमान का डाउनलोड लिंक दिया गया है जहाँ से आप इस पुस्तक को मुफ्त डाउनलोड कर सकते हैं | अध्यात्मकल्प्रम : श्री वर्धमान पुस्तक की श्रेणियां हैं : hindu, dharm
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विवेचन-विषयके प्रारम्भमें ही प्रथम ऋोक बहुत अलंकारिक लिखा गया है । प्रारम्भसे मनपर अंकुश न हो तब क्या करना च६ वहाँ ववाया जाता है । हे चेतन ! वैरी यह धारणा है कि यह मन तो तेरा सुदका ही हैं, परन्तु यह वो एक श्रीवरके सदृश दुष्ट हैं और यह निश्चय जानना कि वह ते। कदापि नहीं है। यह तो बड़ी बड़ी जाल बिछायगा और उसमें तुओ कॅसानका प्रयत्न करेगा और पकड़ कर फिर नारीरूप अग्निमें भूनेगा । ऐसे ऐसे तेरे हालहवाल कर डालेगा; प्रतः । जीवरूप मछ ! तू तेरे वैरी मनरूप धीवरका विश्वास कदापि न कर | गच्छी बेचारी पड्गलिक इच्छासे फंस जाती है, उसको धीवरसे फैलाई दुई झालका भान नहीं रहता है । इसीप्रकार यह अज्ञानी जीव भी मन-धीवरकी नालमें चला जाता है, कैंस जाता है और पीछा नहीं निकल सकता है । यद् ऊँसानेवाली जात तेरे कुविकल्परूप सूत्रकी बनी हुई है। इसलिय ज्ञानी महारज सरल किन्तु मारवाले शब्द में सपदेश करते हैं कि मन का फापि विश्वास न कर । मच्छिवोंको पकड़ने निमित्त धीवर जातको किस प्रकार जाता है इसका जिसको अनुमत्र हो वह समझ सकता है कि एक बार इसके सपाटेमें पाया हुआ। मच्छ फिर वापिस कदापि नहीं निकल सकता हैं ।
इम मनपर विश्वास रक्से और फिर बाढ़ ही रखेतको खाने लगे तो फिर किसी प्रकारका बचाव या उपाय नहीं रहता है, इसलिये इसे टूटी हुई वृक्षको हालीपर बैठनेको विश्वास नहीं किया जाता उसी प्रकार इसपर भी विश्वास नहीं करना चाहिये | मनके विकल्पों से बनी हुई जाल किसप्रार और किस प्रसँग पर फैलती है उसका सरल दृष्टान्त देखना हो तो प्रतिक्रममें मन किन किन दूरस्थ देशकी चात्रा कर आता है उसका