कालिंदी के किनारे | Kalindi Ke Kinare

कालिंदी के किनारे : रामकुमार भ्रमर हिंदी उपन्यास | Kalindi Ke Kinare : Ramkumar Bhramar Hindi Upanyas

कालिंदी के किनारे : रामकुमार भ्रमर हिंदी उपन्यास | Kalindi Ke Kinare : Ramkumar Bhramar Hindi Upanyas के बारे में अधिक जानकारी :

इस पुस्तक का नाम : कालिंदी के किनारे है | इस पुस्तक के लेखक हैं : Ramkumar Bhramar | Ramkumar Bhramar की अन्य पुस्तकें पढने के लिए क्लिक करें : | इस पुस्तक का कुल साइज 2.4 MB है | पुस्तक में कुल 146 पृष्ठ हैं |नीचे कालिंदी के किनारे का डाउनलोड लिंक दिया गया है जहाँ से आप इस पुस्तक को मुफ्त डाउनलोड कर सकते हैं | कालिंदी के किनारे पुस्तक की श्रेणियां हैं : ayurveda, dharm, hindu, Stories, Novels & Plays

Name of the Book is : Kalindi Ke Kinare | This Book is written by Ramkumar Bhramar | To Read and Download More Books written by Ramkumar Bhramar in Hindi, Please Click : | The size of this book is 2.4 MB | This Book has 146 Pages | The Download link of the book "Kalindi Ke Kinare" is given above, you can downlaod Kalindi Ke Kinare from the above link for free | Kalindi Ke Kinare is posted under following categories ayurveda, dharm, hindu, Stories, Novels & Plays |


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पुस्तक का साइज : 2.4 MB
कुल पृष्ठ : 146

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कालिनदी के किनारे जैसे-जैसे रथ राजधानी के पास पहुंच रहा है वैसे-वेे असति भौर परापति की भांखों मे कुछ गड़ने लगा है। पहले रेत की कुछ किरकिरी जैसा और फिर समूचा ही रेगिसतान । कंसी विचितर सथिति है तरल मांपू भी रेगिसतान की तपन भर झुलसान का अहसास देने लगते है। कितने-कितने विचिशर और दोहरे अरथों से भरे होते है ये भांसू । करभी हरपामृत बने हुए कभी लावे कए उफान लिए हुए | असति गौर परापति--दोनों ही वहनों की आंखों में अनेक बार माए हैं ये आंसू । उस समय भी भाषे थे जव इसी मगघ देश की राजधानी से मधुराधिपति कंस के साथ विदा होते समय पिता जरासनध से बिलग हुई पी किनतु तब अलग मरथ थे इन आसुजों के । पतिंगूह जान का उललास भी भरा हुआ था इनमे और पितागृह से विदाई का सताप भी । पर झाज ? आज ये आंसू सिफें पीड़ा परतिशोध और घृणामिशधित आकरोश में डूवे हुए वरपाहीन मरुसयल की तरह तपत । अंगारों की तरह शुलसाते हुए । पति-विछोह के शोक से संतपत और राजगीरव की गरिमा के घूलि-धूसरित हो जाने की वेदना से छनकते हुए । बरसों पूरव जब इसी राजमारग से निकलकर मथुराधिपति कंस का महारानियों के रुप में दोनों वहिनें मथुरा की भर घली थी तब इसी रथ की गड़गड़ाहटें पागलों की झंकार जैसी अनुभव हुई थों और आज जद वेघबय का उजाड़ बटोरे हुए पितायृहू को लौट रही हैं तब लगता है कि रय उनहें बिठाले हुए नही परतिझषण उनहें रॉदते हुए मागे बढ़ रहा

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