महाभारत कालीन समाज : सुखमय भट्टाचार्य हिंदी पुस्तक | Mahabharat kalin Samaj : Sukhmay Bhattacharya Hindi Book के बारे में अधिक जानकारी :
इस पुस्तक का नाम : है | इस पुस्तक के लेखक हैं : | की अन्य पुस्तकें पढने के लिए क्लिक करें : | इस पुस्तक का कुल साइज 20.14 MB है | पुस्तक में कुल 650 पृष्ठ हैं |नीचे का डाउनलोड लिंक दिया गया है जहाँ से आप इस पुस्तक को मुफ्त डाउनलोड कर सकते हैं | पुस्तक की श्रेणियां हैं : dharm, hindu, history, india, Knowledge
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बम्वय प्र ० छिया हैं। जिस प्रकार यह कहना ठीक नही है कि इसमे कोई भी अंझ श्र।कषप्त नगद है उसी प्रकार यह कहना भी युच्तियुक्त नही है कि स्वार्थान्व व्यक्तियों ने इसमे जहाँ-तहाँ अपने इलोक जोड दिये हैं । मुद्रण प्रणाली के प्रचलन से पहले अनेक कारणों से मूल पाठ मे परिवर्तन और परिवद्ध॑न का होना कोई विचित्र वात नही है । देशमेद लिपिभेद कीडो द्वारा खाये स्थान पर अनुमानिक सयोजन कथक व पाठक द्वारा रचित क्रोडपत्र एव उनकी लिखी किंवदतियों का उनक। मृत्यु के उपरान्त दूसरे लेखकों द्वारा मूल मे जोडा जाना आदि कारण अवश्य थे अन्यथा पाठमेद अध्याय व कलोकों की सख्या मे असामजस्य नहीं रहता किन्तु तब भी महाभारत जसे वृहद् ग्रथ का प्रक्षिप्त अंश निर्धारित करना आसान काम नही है। विरोधी वचनो के समाघान की चेष्टा किये बिना ही उसे प्रक्षिप्त कहकर टाल देना भी एक प्रकार का ठु साहस ही है । अपनों रुचि के विपरीत अदश को प्रक्षिप्त कहकर अपना सिद्धान्त स्थापित करना ऐसे तो आसान है परन्तु शास्त्र-समीक्षा की भारतीय पद्धति यह नही हैं। भारतीय पडित पद-वाक्य व प्रमाण शास्त्र व्याकरण पुर्वेमीसासा और न्याय की सहायता से शास्त्रों के पुर्णतया अन्तरविरोधी अंशो के समाघान की मी चेष्टा करते हैँ गौर अपनी इस चेष्टा मे बिल्कुल ही असफल होने पर हारकर उस विरोधी अथ्य को प्रक्षिप्त कहते है। पूना के भडारकर ओरियन्टल रिसचं इन्स्टिट्यूट द्वारा प्रकाशित महाभारत के प्रकाशन-काल मे मैंने भी दीर्घकाल तक काये किया था। उस समय मूझे भारतवर्ष के विभिन्न प्रदेशों को हस्तलिखित महाभारत की अनेक पाडुिपियाँ पढने का अवसर मिला था। विसित्न प्रदेशों की उन पाडुलिपियो मे मुझे तो कही भी आकाश-पाताल का अन्तर नहीं दिखाई दिया। दीर्घकाल का व्यवघान होने के कारण ग्रथ मे काफी परिवतंन-परिवद्ध॑त हुआ हैं यह तो सत्य है किन्तु अब वेदव्यास रचित यथार्थ अद्य निकालना शायद विल्कुल ही असाध्य है। और अपनी अक्षमता के कारण ही मैंने यह ढु साहस नहीं किया । मनुष्य के सघ को समाज कहते हैं । महाभारत मे मनुष्य को बहुत ऊँचा स्थान दिया गया है। हसगीता शाति २९९वाँ अध्याय मे उद्धत है-- गुदा ब्रह्मा तदिदं वो ब्रवीसि तन सानुषाच्छेष्ठतर हि किचित अर्थात्--मैं एक गुह्य महत् तत्व बतलाता हूं कि मनुष्य से श्रेष्ठ और कुछ नहीं है। महाभारतकार ने मनुष्य को मनुष्य के रूप में ही देखा है उसे देवत्व मे उच्नीत