रसखान का अमर काव्य :दुर्गाशंकर मिश्र | Raskhan Ka Amar Kavya : Durga Shankar Mishra

रसखान का अमर काव्य :दुर्गाशंकर मिश्र | Raskhan Ka Amar Kavya : Durga Shankar Mishra

रसखान का अमर काव्य :दुर्गाशंकर मिश्र | Raskhan Ka Amar Kavya : Durga Shankar Mishra के बारे में अधिक जानकारी :

इस पुस्तक का नाम : है | इस पुस्तक के लेखक हैं : Durga Shankar Mishra | Durga Shankar Mishra की अन्य पुस्तकें पढने के लिए क्लिक करें : | इस पुस्तक का कुल साइज 6 MB है | पुस्तक में कुल 96 पृष्ठ हैं |नीचे का डाउनलोड लिंक दिया गया है जहाँ से आप इस पुस्तक को मुफ्त डाउनलोड कर सकते हैं | पुस्तक की श्रेणियां हैं : Biography, history, india, Poetry

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कुल पृष्ठ : 96

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मेरे लेखकीय जीवन की प्रारम्भिक अवस्था के हैं । इस प्रकार अब दो ही पुस्तके बच जाती हैं और उनमें से अनुभूति और अध्ययन तो निबन्ध संग्रह ही हैं तथा उसके कई निबन्धों में अवश्य मेरा समीक्षक स्वरूप स्पष्ट हुआ है। लेकिन सेनापति और उनका काव्य के कतिपय स्थलों को छोड़कर बाकी अवशिष्ट प्रसंगों में तो मैंने शीघ्रता से ही काम लिया है अतः इन कई असफल प्रयासों के मध्य इन पंक्तियों का लेखक अपना एक अन्य शिशु प्रयास पुनः इस आशा से प्रस्तुत कर रहा है कि संभवतः उसे उपेक्षा की दृष्टि से न देखा जाकर स्नेह की दृष्टि से देखा जाएगा ।
हाँ, तो जैसा कि मैं कह रहा था 'रसखान का अमर काव्य' आज से लगभग दस-ग्यारह वर्ष पूर्व उन दिनों की कृति है जब कि मैं साहित्य के विद्यार्थी के नाते हिन्दी साहित्य जगत में प्रविष्ट हुआ था और मेरे कतिपय स्फुट निबन्ध ही प्रकाश में आए थे। उन दिनों यह पुस्तक 'रसखान-सुधा' के नाम से तैयार की गई थी और उसका रूप बहुत कुछ वही था जो कि आज है । पुस्तक पूर्णत: तैयार हो जाने पर इसका नाम 'रसखान का अमर काव्य' रखा गया और नवयुग ग्रंथागार, लखनऊ के अध्यक्ष श्री रामेश्वर तिवारी ने इसे प्रकाशित करते की इच्छा प्रकट की तथा अपनी प्रथम कृति को उन दिनों मैंने प्रथम संकरण के लिए उन्हें भेंट स्वरूप देते हुए उनसे यह अनुरोध किया कि इसे शीघ्र ही प्रकाशित करवा दिया जाय लेकिन तब से लेकर अभी तक यह प्रकाशित न हो सकी और मैं भी इसे शनैः शनैः भूलता सा गया तथा कुछ समय पश्चात् तो इसे पूर्णत: भुला बैठा । हिन्दी कवियों की काव्य साधना, ‘विचार-वीथिका, अनुभूति और अध्ययन, सेनापति और उनका काव्य आदि पुस्तके छप गयीं लेकिन यह न प्रकाशित हो सकी और कहा जाता है कि सन् ५५ में यह प्रेस में दिए जाने पर भी कुछ कारणों से वापिस ले ली गई । चूंकि इसका विज्ञापन हो चुका था अत: बहुत सी प्रकाशन संस्थाओं ने अपने सूचीपत्रों में इसे मेरो कृतियों के मध्य स्थान दे दिया और आश्चर्य तो तब हुआ जब कि राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित होने वाले प्रकाशन समाचार के

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