स्वतंत्रता और संस्कृति : सर्वपल्ली राधाकृष्णन हिंदी पुस्तक मुफ्त पीडीऍफ़ डाउनलोड | Swatantrata Aur Sanskriti : Sarvapalli Radhakrishnan FRee PDF Download

स्वतंत्रता और संस्कृति : सर्वपल्ली राधाकृष्णन | Swatantrata Aur Sanskriti : Sarvapalli Radhakrishnan

स्वतंत्रता और संस्कृति : सर्वपल्ली राधाकृष्णन  | Swatantrata Aur Sanskriti : Sarvapalli Radhakrishnan

स्वतंत्रता और संस्कृति : सर्वपल्ली राधाकृष्णन | Swatantrata Aur Sanskriti : Sarvapalli Radhakrishnan के बारे में अधिक जानकारी :

इस पुस्तक का नाम : स्वतंत्रता और संस्कृति है | इस पुस्तक के लेखक हैं : Sarvapalli radhakrishnan | Sarvapalli radhakrishnan की अन्य पुस्तकें पढने के लिए क्लिक करें : | इस पुस्तक का कुल साइज 18.4 MB है | पुस्तक में कुल 186 पृष्ठ हैं |नीचे स्वतंत्रता और संस्कृति का डाउनलोड लिंक दिया गया है जहाँ से आप इस पुस्तक को मुफ्त डाउनलोड कर सकते हैं | स्वतंत्रता और संस्कृति पुस्तक की श्रेणियां हैं : history, india

Name of the Book is : Swatantrata Aur Sanskriti | This Book is written by Sarvapalli radhakrishnan | To Read and Download More Books written by Sarvapalli radhakrishnan in Hindi, Please Click : | The size of this book is 18.4 MB | This Book has 186 Pages | The Download link of the book "Swatantrata Aur Sanskriti" is given above, you can downlaod Swatantrata Aur Sanskriti from the above link for free | Swatantrata Aur Sanskriti is posted under following categories history, india |

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पुस्तक का साइज : 18.4 MB
कुल पृष्ठ : 186

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शिक्षकों तथा शिक्षार्थियों के समुदाय से विनिर्मित यह ‘विश्व एक प्रकार का संयुक्त सामाजिक जीवन यापन करता था। हमारी यही शिक्षाशालायें देश के उन्नत मस्तिष्क, धार्मिकता एवं उच्चादरों के विकास का मूल कारण थीं। उन्हीं की सहायता से हम एक ऐसे समाज की सृष्टि करने में समर्थ हो सके थे जिसे, यदि हम चाहें तो, ‘विश्वविद्यालय-संसार' कह सकते हैं, जहाँ सांस्कृतिक ऐक्य था—जहाँ मूलभूत लक्ष्यों तथा विचारों में गम्भीर सामञ्जस्य पाया जाता था । आज की परिवर्तित परिस्थिति में विश्वविद्यालय ही वह सत्ता है जिसे विचारों एवं आदर्शों के क्षेत्र में नेतृत्व ग्रहण करना होगा । घोर धार्मिक तथा साम्प्रदायिक वैमनस्य से पीड़ित भारत में आज विश्वविद्यालय-जनित अपनी ही आलोचना कर सकने की शक्ति और दूसरों के विश्वास एवं प्रथाओं के प्रति उदारतापूर्ण विवेकशीलता के अधिकाधिक प्रचार की आवश्यकता है। मुझे भय है कि शास्त्रीपण्डित, मुल्ला मौलवी, तथा परम्पराभुक्तधर्म-प्रचारक पादरी वर्तमान स्थिति में हमें कुछ विशेष महत्व की सहायता नहीं दे सकते । ऐसा प्रतीत होता है कि उनकी दृष्टि में धर्म की उपयोगिता जन साधारण के जीवन को अधिक उन्नत एवं पूर्ण बनाने में नहीं, वरन कोरे ज्ञान-दाभ्भिकों तथा पुजारियों के लिये एक सुन्दर भविष्य निर्माण करने में है। हम सव उस मनोवृत्ति से भलीभांति परिचित हैं जिसका प्रयोग विशेषाधिकारों का समर्थन करने में किया जाता है। इस समर्थन में वाह्यतः उचित प्रतीत होने वाली युक्तियाँ प्रयुक्त स्वतंत्रता और संस्कृति

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