ताओ उपनिषद | Tao Upanishad

ताओ उपनिषद : ओशो | Tao Upanishad : Osho |

ताओ उपनिषद : ओशो | Tao Upanishad : Osho | के बारे में अधिक जानकारी :

इस पुस्तक का नाम : ताओ उपनिषद है | इस पुस्तक के लेखक हैं : osho | osho की अन्य पुस्तकें पढने के लिए क्लिक करें : | इस पुस्तक का कुल साइज 5MB है | पुस्तक में कुल लगभग 3000 पृष्ठ हैं |नीचे ताओ उपनिषद का डाउनलोड लिंक दिया गया है जहाँ से आप इस पुस्तक को मुफ्त डाउनलोड कर सकते हैं | ताओ उपनिषद पुस्तक की श्रेणियां हैं : Spirituality -Adhyatm

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पुस्तक के लेखक :
पुस्तक की श्रेणी :
पुस्तक का साइज : 5MB
कुल पृष्ठ : लगभग 3000

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सनातन व अविकारी ताओ–(प्रवचन–पहला)
अध्याय १: सूत्र १
परम ताओ
जिस पथ पर विचरण किया जा सके, वह सनातन और अविकारी पथ नहीं है। जिसके नाम का सुमिरण हो, वह कालजयी एवं सदा एकरस रहने वाला नाम नहीं है।
न्होंने जाना है--शब्दों से नहीं, शास्त्रों से नहीं, वरन जीवन से ही, जीकर--लाओत्से उन थोड़े से लोगों में से
[v]
एक है। और जिन्होंने केवल जाना ही नहीं है, वरन जनाने की भी अथक चेष्टा की है--लाओत्से उन और भी बहुत थोड़े से। लोगों में से एक है।
लेकिन जिन्होंने भी जाना है और जिन्होंने भी दूसरों को जनाने की कोशिश की है, उनका प्राथमिक अनुभव यही है। कि जो कहा जा सकता है, वह सत्य नहीं है; जो वाणी का आकार ले सकता है, आकार लेते ही अपनी निराकार सत्ता को अनिवार्यतया खो देता है। जैसे कोई आकाश को चित्रित करे, तो आकाश कभी भी चित्रित नहीं होगा; जो भी चित्र में बनेगा, निश्चित ही वह आकाश नहीं है। आकाश तो वह है जो सबको घेरे हुए है; चित्र तो किसी को भी नहीं घेर पाएगा। चित्र तो स्वयं ही आकाश से घिरा हुआ है।
तो चित्र में बना हुआ जैसा आकाश होगा, ऐसे ही शब्द में बना हुआ सत्य होगा। न तो चित्र में बने आकाश में पक्षी उड़ सकेगा, न चित्र में बने आकाश में सूरज निकलेगा, न रात तारे दिखाई पड़ेंगे। चित्र का आकाश तो होगा मृत; कहने। को ही आकाश होगा, नाम ही भर आकाश होगा। आकाश के होने की कोई संभावना चित्र में नहीं है। | जो भी सत्य को कहने चलेगा, उसे पहले ही कदम पर जो बड़ी से बड़ी कठिनाई खड़ी हो जाती है, वह यह कि शब्द में डालते ही सत्य असत्य हो जाता है। ऐसा हो जाता है, जैसा वह नहीं है। और जो कहना चाहा था, वह अनकहा रह जाता है। और जो नहीं कहना चाहा था, वह मुखर हो जाता है।
लाओत्से अपनी पहली पंक्ति में इसी बात से शुरू करता है।
ताओं बहुत अनूठा शब्द है। उसके अर्थ को थोड़ा खयाल में ले लें तो आगे बढ़ने में आसानी होगी। ताओ के बहुत अर्थ हैं। जो भी चीज जितनी गहरी होती है उतनी बहुअर्थी हो जाती है। और जब कोई चीज बहुआयामी, मल्टी डायमेंशनल होती है, तब स्वभावतः जटिलता और बढ़ जाती है।
ताओं का एक तो अर्थ है: पथ, मार्ग, दि वे। लेकिन सभी पथ बंधे हुए होते हैं। ताओ ऐसा पथ है जैसे पक्षी आकाश
में उड़ता है; उड़ता है तब पथ तो निर्मित होता है, लेकिन बंधा हुआ निर्मित नहीं होता है। सभी पथों पर चरणचिह्न बन जाते हैं और पीछे से आने वालों के लिए सुविधा हो जाती है। ताओ ऐसा पथ है जैसे आकाश में पक्षी उड़ते हैं, उनके पदों के कोई चिह्न नहीं बनते, और पीछे से आने वाले को कोई भी सुविधा नहीं होती।
तो अगर यह खयाल में रहे कि ऐसा पथ जो बंधा हुआ नहीं है, ऐसा पथ जिस पर चरणचिह्न नहीं बनते, ऐसा पथ जिसे कोई दूसरा आपके लिए निर्मित नहीं कर सकता--आप ही चलते हैं और पथ निर्मित होता है--तो हम ताओ का अर्थ पथ भी कर सकते हैं, दि वे भी कर सकते हैं। लेकिन ऐसा पथ तो कहीं दिखाई नहीं पड़ता। इसलिए ताओ को पथ कहना उचित होगा?
लेकिन यह एक आयाम ताओ का है। तब पथ का एक दूसरा अर्थ लें: पथ है वह, जिससे पहुंचा जा सके; पथ है वह, जो मंजिल से जोड़ दे। लेकिन ताओ ऐसा पथ भी नहीं है। जब हम एक रास्ते पर चलते हैं और मंजिल पर पहुंच जाते हैं, तो रास्ता और मंजिल दोनों जुड़े हुए होते हैं। असल में, मंजिल रास्ते का आखिरी छोर होता है, और रास्ता मंजिल की शुरुआत होती है। रास्ता और मंजिल दो चीजें नहीं हैं, जुड़े हुए संयुक्त हैं। रास्ते के बिना मंजिल न हो सकेगी; मंजिल के बिना रास्ता न होगा। लेकिन ताओ एक ऐसा पथ है, जो मंजिल से जुड़ा हुआ नहीं है। जब कोई रास्ता मंजिल से जुड़ा होता है, तो सभी को उतना ही रास्ता चलना पड़ता है, तभी मंजिल आती है।
ताओ ऐसा पथ है कि जो जहां खड़ा है, उसी स्थान पर, उसी जगह पर खड़े हुए मंजिल को उपलब्ध हो सकता है। इसलिए ताओ को ऐसा पथ भी नहीं कहा जा सकता। जहां खड़े हैं हम, जिस जगह, जिस स्थान पर, वहीं से मंजिल मिल सके; और ऐसा भी हो सकता है कि हम जन्मों-जन्मों चलें, और मंजिल न मिल सके; तो ताओ जरूर किसी और तरह का पथ है। इसलिए एक तो पथ का अर्थ है कहीं गहरे में, लेकिन बहुत सी शर्तों के साथ।
दुसरा ताओ का अर्थ है: धर्म। लेकिन धर्म का अर्थ मजहब नहीं है, रिलीजन नहीं है। धर्म का वही अर्थ है जो पुरातनतम ऋषियों ने लिया है। धर्म का अर्थ होता है। वह नियम, जो सभी को धारण किए हुए है। जीवन जहां भी है, उसे धारण करने वाला जो आत्यंतिक नियम, दि अल्टिमेट लॉ, वह जो आखिरी कानून है वह। तो ताओ धर्म है--मजहब के अर्थों में नहीं, इसलाम और हिंदू और जैन और बौद्ध और सिक्ख के अर्थों में नहीं--जीवन का परम नियम। धर्म है, जीवन के शाश्वत नियम के अर्थ में।
लेकिन सभी नियम सीमित होते हैं। ताओ ऐसा नियम है जिसकी कोई सीमा नहीं है।
असल में सीमा तो होती है मृत्यु की; जीवन की कोई सीमा नहीं होती। मरी हुई वस्तुएं ही सीमित होती हैं; जीवित वस्तु सीमित नहीं होती, असीम होती है। जीवन का अर्थ ही है: फैलाव की निरंतर क्षमता, दि कैपेसिटी टु एक्सपैंड। एक बीज जीवित है, अगर वह अंकुर हो सकता है। एक अंकुर जीवित है, अगर वह वृक्ष हो सकता है। एक वृक्ष जीवित है, अगर उसमें और अंकुर, और बीज लग सकते हैं। जहां फैलाव की क्षमता रुक जाती है वहीं जीवन रुक जाता है। बच्चा इसीलिए ज्यादा जीवित है बूढ़े से; अभी फैलाव की क्षमता है बहुत।
तो ताओ कोई सीमित अर्थों में नियम नहीं है। आदमी के बनाए हुए कानून जैसा कानून नहीं है, जिसको कि डिफाइन किया जा सके, जिसकी परिभाषा तय की जा सके, जिसकी परिसीमा तय की जा सके। ताओ ऐसा नियम है जो

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10 Comments
  1. a kumar says

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  3. ankit says

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