श्वेताश्वतरोपनिषद : गीता प्रेस | Shwetashwataropanishad : Geeta Press के बारे में अधिक जानकारी :
इस पुस्तक का नाम : श्वेताश्वतरोपनिषद है | इस पुस्तक के लेखक हैं : Shankaracharya | Shankaracharya की अन्य पुस्तकें पढने के लिए क्लिक करें : Shankaracharya | इस पुस्तक का कुल साइज 9.3 MB है | पुस्तक में कुल 272 पृष्ठ हैं |नीचे श्वेताश्वतरोपनिषद का डाउनलोड लिंक दिया गया है जहाँ से आप इस पुस्तक को मुफ्त डाउनलोड कर सकते हैं | श्वेताश्वतरोपनिषद पुस्तक की श्रेणियां हैं : dharm, gita-press, hindu
Name of the Book is : Shwetashwataropanishad | This Book is written by Shankaracharya | To Read and Download More Books written by Shankaracharya in Hindi, Please Click : Shankaracharya | The size of this book is 9.3 MB | This Book has 272 Pages | The Download link of the book "Shwetashwataropanishad" is given above, you can downlaod Shwetashwataropanishad from the above link for free | Shwetashwataropanishad is posted under following categories dharm, gita-press, hindu |
यदि इस पेज में कोई त्रुटी हो तो कृपया नीचे कमेन्ट में सूचित करें |
पुस्तक का एक अंश नीचे दिया गया है : यह अंश मशीनी टाइपिंग है, इसमें त्रुटियाँ संभव हैं, इसे पुस्तक का हिस्सा न माना जाये |
कि जड़-चेतन दोनोंसे परे इनकी अधिष्ठाता और प्रेरक जो एक देव है वहीं अपनी मायाशक्तिसे जगत्का अभिन्ननिमित्तोपादान कारण है और उसका साक्षात्कार होनेपर ही जीव मायाके से मुक्त हो सकता है। उसे कहीं अन्यत्र ढूँढ़नेकी आवश्यकता नहीं है । वह सर्वदा अपने अन्तःकरणमें ही स्थित है । इस अपने अन्तरात्मासे भिन्न कोई और देब नहीं है तथा यही भोका, भोग्य और प्रेरक भी कहा जाता है।
इस प्रकार प्रधम अध्यायमें जगत्कारणका निर्णय कर प्रणवचिन्तनपूर्वक ध्यानाभ्यासको ही उसके साक्षात्कारका साधन बताया गया है। इसका विशेष विवरण द्वितीय अध्यायमें है। वहाँ ध्यानकी विधि ध्यानके योग्य स्थान, योगकी प्रथम प्रवृत्ति और उसके फलका बड़ा सुन्दर वर्णन किया गया है। इस तरह साधनका निरूपण कर फिर तृतीय अध्याय साध्यका प्रतिपादन किया है। वहाँ उस एक ही तत्वका पहले सगुण-साकाररूपसे, फिर अन्तर्यामी और विराट्रूपसे तथा अन्तमें शुरूपसे निरूपण हुआ है । चतुर्थ अध्यायमें तत्वबोधकी प्राप्ति और मायासे मुक्त होनेके लिये उस देबकी स्तुति की गयी है। तथा अनेक प्रकारसे उसके स्वरूप और महत्वका वर्णन किया गया है। पञ्चम अध्यायमें क्षर, अक्षर और इन दोनों के प्रेरक परमात्माके स्वरुपका स्पष्टीकरण हुआ है । वहाँ क्षरका भोग्यत्व, अक्षर (जीव) का भोक्तृत्व और परमात्माको नियन्तृत्व बतलाया गया है तथा यह भी प्रदर्शित किया है कि जीव अपने संकल्पके अनुसार विभिन्न योनियाको प्राप्त होता है और परमात्माको ज्ञान होनेपर सय प्रकारके चन्धनासे मुक्त हो जाता है । इसके पश्चात् छठे अध्यायमें भी परमात्माके स्वरूप और महत्वका ही प्रतिपादन करते हुए अन्तमें उसके पानसे सारे दुखोकी निवृत्ति बतलायी है और यह कहा है कि उस दैवको जाने विना दुःखका अन्त होना इसी प्रकार असम्भव ६ जैसे व्यापक और निरबयब आकाशको चमड़ेके समान लपेटना । | इस प्रकार इस उपनिषद्में शादिसे अन्ततक केबल परमार्थतफा ही निरूपण हुआ है। फिर अन्तमें एक मन्त्राद्वारा इस विद्याके