आदमी होने की तमीज : अशोक त्रिपाठी | Aadmi Hone Ki Tameej : Ashok Tripathi

आदमी होने की तमीज : अशोक त्रिपाठी | Aadmi Hone Ki Tameej : Ashok Tripathi

आदमी होने की तमीज : अशोक त्रिपाठी | Aadmi Hone Ki Tameej : Ashok Tripathi के बारे में अधिक जानकारी :

इस पुस्तक का नाम : आदमी होने की तमीज है | इस पुस्तक के लेखक हैं : Ashok Tripathi | Ashok Tripathi की अन्य पुस्तकें पढने के लिए क्लिक करें : | इस पुस्तक का कुल साइज 29 MB है | पुस्तक में कुल 256 पृष्ठ हैं |नीचे आदमी होने की तमीज का डाउनलोड लिंक दिया गया है जहाँ से आप इस पुस्तक को मुफ्त डाउनलोड कर सकते हैं | आदमी होने की तमीज पुस्तक की श्रेणियां हैं : Stories, Novels & Plays

Name of the Book is : Aadmi Hone Ki Tameej | This Book is written by Ashok Tripathi | To Read and Download More Books written by Ashok Tripathi in Hindi, Please Click : | The size of this book is 29 MB | This Book has 256 Pages | The Download link of the book "Aadmi Hone Ki Tameej" is given above, you can downlaod Aadmi Hone Ki Tameej from the above link for free | Aadmi Hone Ki Tameej is posted under following categories Stories, Novels & Plays |

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पुस्तक का साइज : 29 MB
कुल पृष्ठ : 256

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रचना, अनुभव के स्तर पर, प्रत्यक्ष-जगत की, शब्दों के माध्यम से, पुनरंचना है। प्रत्यक्ष जगत की आनुभविक गुनर्रचना-रचना--का केन्द्र मनुष्य होता है या होना चाहिए । रचना हमे इन्सान और इन्सानियत और उसके द्वन्द्वात्मक सम्बन्धों से रू-ब-रू कराती है, प्रकारान्तर से आदमी होने की तमीज देती है।
आलोचना, रचना के अन्दर निहित इसी इन्सान और इन्सानियत की खोज करती है या उसे यही खोज करनी चाहिए। जिस रचना में मनुष्य, मनुष्यता और मानवीय सम्बन्धो की द्वन्द्वात्मकता नहीं होती, सजग और वैज्ञानिक दृष्टि-मम्पन्न आलोचक उसे खारिज करता है । आलोचक रचना के माध्यम से रचना में निहित इस मनुष्य और मनुष्यता की संपूर्ण सम्भावना को, सामाजिक सदभ के रू-ब-रू रखकर उसकी प्रामाणिकता की जांच-पड़ताल करना है और ऐतिहासिक विकाम-क्रम में इन दोनों-मनुष्य और समाज-- के द्वन्द्वात्मक रिश्तो के बीच से, एक अधिक संभावना-युक्त मनुष्य की ओर संकेत करता है और रचना के समानांतर ही एक नयी रचना की सृष्टि करता है । तात्पर्य यह कि जिस प्रकार रचना प्रत्यक्ष-जगत की पुनर्रचना है, उमी प्रकार आलोचना रचना की पुनर्रचना है । आलोचक रचना के अन्दर निहित पुननिन मंमार में माक्षान्कार करना है और फिर उसे प्रत्यक्ष जगत के रु-ब-रु रखकर, उसकी जांच-पड़ताल करके दोनों के द्वन्द्वात्मक रिश्तों से एक नये | जगत की रचना करता है—रचना की पुनर्रचना करता है तथा अप्रत्यक्ष रूप से आदमी होने की तमीज़ को ही संप्रेषित करता है ।

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