सकंद पुराण | Sakand Puraan

सकंद पुराण : वेदव्यास| Sakand Puraan : Vedvyas

सकंद पुराण : वेदव्यास| Sakand Puraan : Vedvyas के बारे में अधिक जानकारी :

इस पुस्तक का नाम : सकंद पुराण है | इस पुस्तक के लेखक हैं : Ved Vyas | Ved Vyas की अन्य पुस्तकें पढने के लिए क्लिक करें : | इस पुस्तक का कुल साइज 73 MB है | पुस्तक में कुल 1108 पृष्ठ हैं |नीचे सकंद पुराण का डाउनलोड लिंक दिया गया है जहाँ से आप इस पुस्तक को मुफ्त डाउनलोड कर सकते हैं | सकंद पुराण पुस्तक की श्रेणियां हैं : dharm, hindu

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पुस्तक के लेखक :
पुस्तक की श्रेणी : ,
पुस्तक का साइज : 73 MB
कुल पृष्ठ : 1108

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वैष्णव कौन हैं ? उपकृतिकुशला जगत्स्यजस्त्र परकुशलानि निजानि मन्यमानाः । अषि परपरिभावने दयाह्नः शिवमनसः खलु वैष्णवाः प्रसिद्धाः ।। दृषदि परधने व लोष्टपण्डे परवनिताम् न शाल्मलीषु । सखि रिषु सहजेषु बन्धुवर्ग सममतयः खलु वैष्णवाः प्रसिद्धाः ॥ गुणगणसुमुखाः परस्य मर्मच्छदनपराः परिणामसौख्यदा हि । भगवति सततं प्रदत्तचित्ताः प्रियवचनाः खलु वैष्णवाः प्रसिद्धाः ।। स्फुटमधुरपदं हि कंसहन्तुः कषमुषं शुभनाम चामनन्तः । जय जय परिघोषणां रटन्तः किम विभवाः खलु वैष्णवाः प्रसिद्धाः ।। हरिचरणसरोजपुग्मचित्ता जडिमधियः सुखदुःखसाम्यरुषाः । अपचितिचतुरा हरी निजात्मनतवचसः वलु वैष्णवाः प्रसिद्धाः ।। XXXX विगलितमदमानशुद्धचित्ताः ।
प्रसभविनश्यदहङ्कतिप्रशान्ताः । नरहरिममरातबन्धुमिष्ट्वा । धपितः खलु वैष्णव जयन्ति ॥
| ( वैष्णग* पु* मा० १० | ११०-११४, ११७) ‘समस्त विश्वका उपकार करने में ही जो निरन्तर कुशलताका परिचय देते हैं, दूसरों की भलाईको अपनी ही भाई मानते हैं, शत्रुको भी पराभव देखकर उनके प्रति इाले द्रवीभूत हो जाते हैं तथा जिनके चित्तने सबका कल्याण असा रहता है, वे ही वैष्णपके नामसे प्रसिद्ध है। जिनकी पाथर, परधन और मिट्टी के देलेमें, परापी स्त्री और कुशाल्मली नामक नरकमै, मित्र, शत्रु, भाई तथा बन्धुसमें समान बुद्धि है, वे ही निश्चितरूपसे बावके नामसे प्रसिद्ध हैं। जो दूसरों की गंगरादिसे प्रसन्न होते और पराये दोषको दकनेका प्रयन्न करते हैं, परिणाम में सभी सुख देते हैं, भगवान्में
सदा न गाये रहते तथा व पचन बोलते हैं, वे ही वैग्णपके नामसे प्रसिद्ध हैं। जो भगा। । श्रीकणके पापहारी शुभ नामसी मधुर पदका जाप करते और जय-जयकी घोषणाके साथ
भगवन्नामका कीर्तन करते हैं, वे अकिञ्चन महान वैविके रूप में प्रसिद्ध है। जिन वित श्रीहरिके चरणारविन्दों में निरन्तर लगा रहता है, जो त्रैमाचिक्के कारण जडबुद्धि-सदृश बने रहते
हैं, सुख और दुःख दोनों ही जिनके लिये समान हैं, जो भगवानको पूजाने दक्ष हैं तथा अपने | मन और विनययुक्त वाणीको भगवान्की सेवाने समर्पित कर के हैं, वे ही वैष्णश्के नामले प्रसिद्ध
हैं। मई और अभिमानके गल जाने के कारण जिनका अन्त:करण पन्त शुद्ध हो गया है, अहङ्कारके समूल नाशसे जो परम शान्त-शोरहित हो गये है तथा देवताओंके विश्वसनीय बन्धु भगवान् श्रीनृसिंहजीकी आराधना करके जो शोकरहित हो गये हैं, ऐसे वैष्णव निश्चय ही उच्च पदको प्राप्त होते हैं।'

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