मरणोत्तर जीवन : स्वामी विवेकानंद | Marnottar Jeevan : Swami Vivekanand

मरणोत्तर जीवन : स्वामी विवेकानंद  | Marnottar Jeevan : Swami Vivekanand

मरणोत्तर जीवन : स्वामी विवेकानंद | Marnottar Jeevan : Swami Vivekanand के बारे में अधिक जानकारी :

इस पुस्तक का नाम : मरणोत्तर जीवन है | इस पुस्तक के लेखक हैं : Vivekanand | Vivekanand की अन्य पुस्तकें पढने के लिए क्लिक करें : | इस पुस्तक का कुल साइज 2.9MB है | पुस्तक में कुल 40 पृष्ठ हैं |नीचे मरणोत्तर जीवन का डाउनलोड लिंक दिया गया है जहाँ से आप इस पुस्तक को मुफ्त डाउनलोड कर सकते हैं | मरणोत्तर जीवन पुस्तक की श्रेणियां हैं : dharm, hindu, manovigyan

Name of the Book is : Maranottar Jeevan | This Book is written by Vivekanand | To Read and Download More Books written by Vivekanand in Hindi, Please Click : | The size of this book is 2.9MB | This Book has 40 Pages | The Download link of the book "Maranottar Jeevan " is given above, you can downlaod Maranottar Jeevan from the above link for free | Maranottar Jeevan is posted under following categories dharm, hindu, manovigyan |

पुस्तक के लेखक :
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पुस्तक का साइज : 2.9MB
कुल पृष्ठ : 40

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क्या आत्मा अमर है? का अटूट सम्बन्ध अन्तर्जगत की नित्यता से है। और चाहे विश्व के विषय में वह सिद्धान्त- जिसमें एक को निल्य और दूसरे को अनिल्य बताया गया है-वह सिद्धान्त कितना ही युक्ति-संगत क्यों न दिखे, ऐसे सिद्धान्तवाले को स्वयं ही अपने ही शरीर रूपी यंत्र में पता चल जायेगा कि ज्ञानपूर्वक किया हुआ एक भी ऐसा कार्य सम्भव नहीं है जिसमें कि आन्तरिक और बाह्य संसार दोनों की निल्यता उस कार्य के प्रेरक कारणों का एक अंश न हो। यद्यपि यह विलकुल सच है कि जब मनुष्य का मन अपनी मर्यादा के परे पहुँच जाता है तब तो वह द्वन्द्व को अखण्ड ऐक्य में परिणत हुआ देखता है। उस असीम सत्ता के इस ओर सम्पूर्ण बाह्य संसार-अर्थात वह संसार जो हमारे अनुभव का विषय होता हैउसका अस्तित्व विषयी (ज्ञाता ) के लिये है ऐसा ही जाना जाता है, या केवल ऐसा ही जाना जा सकता है। और यही कारण है कि हमें विषयी के विनाश की कल्पना करने के पूर्व विषय के विनाश की कल्पना करनी होगी। यहाँ तक तो स्पष्ट है। परन्तु कठिनाई अब इसके बाद होती है। साधारणत: मैं स्वयं अपने को देह के सिवाय और कुछ हूँ ऐसा सोच नहीं सकता। मैं देह हैं यह भावना मेरी अपनी नित्यता की भावना के अन्तर्गत है, परन्तु देह तो स्पष्ट ही उसी तरह अनिल्य है जैसी केि सदा परिवर्तनशील विभाव वाली ममस्त प्रकृति । तब फिर यह नित्यता है कहाँ ?

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3 Comments

  1. डॉ चमन लाल गौतम जी की लिखी पुस्तक मंत्र महाविज्ञान , जिसके 4 भाग है, यदि उन्हें यहाँ upload किया जाय, तो सम्बंधित क्षेत्र के ज्ञानी जनो को बहुत लाभ होगा!!

  2. Marnottar jivan by swami vivekanad doesnot download. On clicking downloading link..it says oops! Link is expired.
    Please provide new downloading link.

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