एतरेयोपनिषदः | Aitreyopanishad

एतरेयोपनिषदः : हिंदी पुस्तक | Aitreyopanishad : Hindi Book

एतरेयोपनिषदः : हिंदी पुस्तक | Aitreyopanishad : Hindi Book के बारे में अधिक जानकारी :

इस पुस्तक का नाम : एतरेयोपनिषदः है | इस पुस्तक के लेखक हैं : Shankaracharya | Shankaracharya की अन्य पुस्तकें पढने के लिए क्लिक करें : | इस पुस्तक का कुल साइज 4.3 MB है | पुस्तक में कुल 106 पृष्ठ हैं |नीचे एतरेयोपनिषदः का डाउनलोड लिंक दिया गया है जहाँ से आप इस पुस्तक को मुफ्त डाउनलोड कर सकते हैं | एतरेयोपनिषदः पुस्तक की श्रेणियां हैं : dharm, gita-press, hindu

Name of the Book is : Aitreyopanishad | This Book is written by Shankaracharya | To Read and Download More Books written by Shankaracharya in Hindi, Please Click : | The size of this book is 4.3 MB | This Book has 106 Pages | The Download link of the book "Aitreyopanishad" is given above, you can downlaod Aitreyopanishad from the above link for free | Aitreyopanishad is posted under following categories dharm, gita-press, hindu |


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पुस्तक का साइज : 4.3 MB
कुल पृष्ठ : 106

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[६] का बोध करानेके लिये ही कही गयी है, क्योंकि समस्त संसार आत्माका ही संकल्प होनेके कारण आत्मस्वरूप ही है । द्वितीय अध्यापके आरम्भमें इसी प्रकार उपकम कर भगवान् भाष्यकारने आत्मतत्त्वका बड़ा सुन्दर और युक्तियुक्त विवेचन किया है।
इस अध्यायमै आत्मज्ञानके हेतुभूत वैराग्यकी सिद्धिके लिये जीवकी तीन अवस्थाका जिन्हें प्रथम अध्यायमें 'आवसथ' नामसे कहा हैवर्णन किया गया है । जीवके तीन जन्म माने गये हैं--( १ ) वीर्यरूपसे माताकी कुक्षि में प्रवेश करना, ( २ ) बालरूप से उत्पन्न होना
और ( ३ ) पिताको मृत्युको प्राप्त होकर पुनः जन्म ग्रहण करना । 'आत्मा के पुत्र नामासि' ( कौपी० २ । ११ ) इस श्रुतिके अनुसार पिता और पुत्रका अभेद है; इसीलिये पिताके पुनर्जन्मको भी पुत्रका तृतीय जन्म बतलाया गया है । वामदेव ऋपिने गर्भमें रहते हुए ही अपने बहुत-से जन्मोंका अनुभव बतलाया था और यह कहा था कि मैं लोहमय दुगोंके समान सैकड़ों शरीरों में बंदी रह चुकी हैं। किन्तु अब आत्मज्ञान हो जाने से मैं श्येन पक्षीके समान उनका भेदन कर बाहर निकल आया हैं। ऐसा ज्ञान होनेके कारण ही बामदेव ऋषि देहपातके अनन्तर अमरपदको प्राप्त हो गये थे । अतः आत्माको भूत एवं इन्द्रिय आदि अनात्मप्रपञ्चसे सर्वथा असंग अनुभव करना ही अमरत्व-प्राप्तिका एकमात्र साधन है।
इस प्रकार द्वितीय अध्यायमें आत्मज्ञानको परमपद-प्राप्तिका एक मात्र साधन बतलाकर तीसरे अध्यायमें उसका प्रतिपादन किया गया है । बहाँ बतलाया है कि हृदय, मन, संज्ञान, आज्ञान, विज्ञान, प्रज्ञान, मेधा, दृष्टि, धृति, मति, मनीषा, जूति, स्मृति, संकल्प, ऋतु, अतु, काम एवं वश ये सब प्रज्ञानके ही नाम हैं। यह अज्ञान ही प्रमा, इन्द्र, प्रजापति, समस्त देवगण, पञ्चमहाभूत तथा उद्भिज्ज, स्वेदज, अण्डज और जरायुज आदि सब प्रकारके जीव-जन्तु है। यही हाथी, घोडे, मनुष्य तथा सम्पूर्ण स्थावर-जंगम जगत् है। इस प्रकार यह सारा संसार प्रधानमें

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