असंभव क्रांति | Asambhav Kranti

असंभव क्रांति : ओशो | Asambhav Kranti : OSHO

असंभव क्रांति : ओशो | Asambhav Kranti : OSHO के बारे में अधिक जानकारी :

इस पुस्तक का नाम : असंभव क्रांति है | इस पुस्तक के लेखक हैं : osho | osho की अन्य पुस्तकें पढने के लिए क्लिक करें : | इस पुस्तक का कुल साइज 1.1MB है | पुस्तक में कुल 155 पृष्ठ हैं |नीचे असंभव क्रांति का डाउनलोड लिंक दिया गया है जहाँ से आप इस पुस्तक को मुफ्त डाउनलोड कर सकते हैं | असंभव क्रांति पुस्तक की श्रेणियां हैं : Spirituality -Adhyatm

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पुस्तक के लेखक :
पुस्तक की श्रेणी :
पुस्तक का साइज : 1.1MB
कुल पृष्ठ : 155

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असंभव क्रांति
१. सत्य का द्वार
मेरे प्रिय आत्मन्,
एक समाट एक दिन सुबह अपने बगीचे में निकला। निकलते ही उसके पैर में कांटा गड़ गया। बहुत पीड़ा उसे हुई। और उसने सारे साम्राज्य में जितने भी विचारशील लोग थे, उन्हें राजधानी आमंत्रित किया। और उन लोगों से कहा, ऐसी कोई आयोजना करो कि मेरे पैर में कांटा न गड़ पाए। वे विचारशील लोग हजारों की संख्या में महीनों तक विचार करते रहे और अंततः उन्होंने यह निर्णय किया कि सारी पृथ्वी को चमड़े से ढांक दिया जाए, ताकि सम्राट के पैर में कांटा न गई। यह खबर पूरे राज्य में फैल गई। किसान घबड़ा उठे। अगर सारी जमीन चमड़े से ढंक दी गई तो अनाज कैसे पैदा होगा? सारे लोग घबड़ा उठे--राजा के पैर में कांटा न गरे, कहीं इसके पहले सारी मनुष्य जाति की हत्या तो नहीं कर दी जाएगी? क्योंकि सारी जमीन ढंक जाएगी तो जीवन असंभव हो जाएगा। लाखों लोगों ने राजमहल के द्वार पर प्रार्थना की और राजा को कहा, ऐसा न करें कोई और उपाय खोजें। विद्वान थे, बुलाए गए और उन्होंने कहा, तब दूसरा उपाय यह है कि पृथ्वी से सारी धूल अलग कर दी जाए, कांटे अलग कर दिए जाएं, ताकि आपको कोई तकलीफ न हो।। कांटों की सफाई का आयोजन हुआ। लाखों मजदूर राजधानी के आसपास झाडुएं लेकर रास्तों को, पथों को, खेतों को कांटों से मुक्त करने लगे। धूल के बवंडर उठे, आकाश धूल से भर गया। लाखों लोग सफाई कर रहे थे। एक भी कांटे को पृथ्वी पर बचने नहीं देना था, पूल नहीं बचने देनी थी, ताकि राजा को कोई तकलीफ न हो, उसके कपड़े भी खराब न हों, कांटे भी न गईं। हजारों लोग बीमार पड़ गए, इतनी धूल उड़ी। कुछ लोग बेहोश हो गए, क्योंकि चौबीस घंटा, अखंड धूल उड़ाने का क्रम चलता था। धूल वापस बैठ जाती थी, इसलिए क्रम बंद भी नहीं किया जा सकता था। सारी प्रजा में घबड़ाहट फैल गई। लोगों ने राजा से प्रार्थना की यह क्या पागलपन हो रहा है। इतनी धूल उठा दी गई है कि हमारा जीना दूभर हो गया, सांस लेना मुश्किल है। कृपा करके ये धूल के बादल वापस बिठाए जाएं। कोई और रास्ता खोजा जाए। फिर हजारों मजदूरों को कहा गया कि वे जाकर पानी भरें और सारी पृथ्वी को सीचें। नदी
और तालाब सूख गए। लाखों निश्तियों ने सारी राजधानी को, राजधानी के आसपास की भूमि को पानी से सींचा। कीचड़ मच गई, गरीबों के झोपड़े बह गए। बहुत मुसीबत खड़ी हो गई। फिर राजा से प्रार्थना की गई कि यह क्या हो रहा है--क्या आप में जीने न देंगे? क्या

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