धम्म्परिक्खा | Dhammparikkha

धम्म्परिक्खा : डॉ. भागचन्द्र जैन | Dhammparikkha : Dr. Bhagchandra Jain

धम्म्परिक्खा : डॉ. भागचन्द्र जैन | Dhammparikkha : Dr. Bhagchandra Jain के बारे में अधिक जानकारी :

इस पुस्तक का नाम : धम्म्परिक्खा है | इस पुस्तक के लेखक हैं : Dr. Bhagchandra Jain | Dr. Bhagchandra Jain की अन्य पुस्तकें पढने के लिए क्लिक करें : | इस पुस्तक का कुल साइज 8.9MB है | पुस्तक में कुल 307 पृष्ठ हैं |नीचे धम्म्परिक्खा का डाउनलोड लिंक दिया गया है जहाँ से आप इस पुस्तक को मुफ्त डाउनलोड कर सकते हैं | धम्म्परिक्खा पुस्तक की श्रेणियां हैं : jain

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पुस्तक का साइज : 8.9MB
कुल पृष्ठ : 307

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इस प्रकार धम्मपरिक्शा की अपभ्रंश भाषा का विश्लेषण करने से यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है कि इस पर एक और संस्कृत का प्रभाव है तो दूसरी बोर शौरसेनी प्राकृत का। इसे रखेनी किंवा नागर अप भी हो जा सकता है। इसमें देशी शवों का भी प्रयोग हुआ है। कुछ उंदुर जैसे शब ऐसे भी है जो मराठी में आज भी प्रयुक्त हो हे हैं। यह हम जानते है कि हरिवेश ने अपना अन्य अचलपुर में लिया था और अचलपुर बाज परतवाड़ा(अमरावती) के पास महाराष्ट्र में है। मध्यकाल में, विशेषतः 9वीं से 12 वीं क्ती तक अचलपुर जैन संस्कृति का प्रधान केन्द्र रहा है। मुक्तागिरि सिद्धत्र इसी के समीप अवस्थित है। अतः मराठी के विकास की दृष्टि से धम्मपरिक्सा की भाषा पर विचार किया जा सकता है।
आचार्य हेमचंद्र ने अपभ्रंश के मेवों का वर्णन तो नहीं किया है पर उनके वैकल्पिक नियमों से उनकी विविधता अवश्य सूचित होती है। पश्चिमी सम्प्रदाय के हेमचन्ह आदि वैयाकरणों ने प्रायः दौरसेनी को अपभ्रंश को आधार माना है । अभीरों की बाधिपत्य पश्चिम प्रदेश में रहा है और पश्चिमी अपभ्रंश को माघार शौरसेनी रहा है। हरिषेण ने भी बाभीर देश का वर्णन किया है (27) । पूर्वीय मार्ग के प्राचीनतम वैयाकरण वररुचि ने भी अपभ्रंश के भेदों का कोई उल्लेख नहीं किया पर क्रमदीश्वर और पुरुषोत्तमदेव के अनुसार नागर अपभ्रंश का प्रयोग क्षेत्र पश्चिमी प्रदेश रहा है। रामशर्मतर्क बागीर (16 वीं शती) ने 27 प्रकार की अपभ्रंशों में नागर अपभ्रंश को मूल माना है। इस प्रकार नागर और शौरसेनी अपभ्रंश का बड़ा सामीप्य सम्बन्ध है। लगभग समूचा अपक्ष साहित्य इसी भाषा में लिखा गया है।

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