देवदास – सरत्चंद्र चट्टर्जी | Devdas – Saratchandra Chatterjee के बारे में अधिक जानकारी :
इस पुस्तक का नाम : देवदास है | इस पुस्तक के लेखक हैं : Saratchandra Chatterjee | Saratchandra Chatterjee की अन्य पुस्तकें पढने के लिए क्लिक करें : Saratchandra Chatterjee | इस पुस्तक का कुल साइज 500 KB है | पुस्तक में कुल 72 पृष्ठ हैं |नीचे देवदास का डाउनलोड लिंक दिया गया है जहाँ से आप इस पुस्तक को मुफ्त डाउनलोड कर सकते हैं | देवदास पुस्तक की श्रेणियां हैं : Stories, Novels & Plays
Name of the Book is : Devdas | This Book is written by Saratchandra Chatterjee | To Read and Download More Books written by Saratchandra Chatterjee in Hindi, Please Click : Saratchandra Chatterjee | The size of this book is 500 KB | This Book has 72 Pages | The Download link of the book "Devdas" is given above, you can downlaod Devdas from the above link for free | Devdas is posted under following categories Stories, Novels & Plays |
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एक दिन प्रात:काल पार्वती ने माता से कहा - 'मां, मैं फिर पाठशाला जाऊंगी।'
‘क्यो?'
पार्वती पहले कुछ विस्मित हुई, फिर सिर हिलाकर बोली - 'मैं जरूर जाऊंगी।' 'तो जा, पाठशाला जाने से मैंने कभी तुझे रोका तो नहीं है।'
उसी दिन दोपहर में पार्वती ने दासी का हाथ पकड़कर, बहुत दिन से छोड़ी हुई स्लेट और पेसिल को ढूंढकर बाहर निकाला और उसी पुराने स्थान पर शांत एवं गंभीर भाव से जा बैठी।
दासी ने कहा - 'गुरु जी, पत्तो को अब मारना नहीं, यह अपनी इच्छा से पढ़ने आई है, जब तक इसकी इच्छा होगी पढ़ेगी और जब इच्छा न होगी, घर चली जायेगी।'
गुरुजी ने मन-ही-मन कहा, तथास्तु ! प्रकट में कहा - 'यही होगा।'
एक बार ऐसी इच्छा हुई कि पूछे कि पार्वती कलकत्ता क्यो नही भेजी गयी? किंतु यह बात नहीं पछी । पार्वती ने देखा कि उसी स्थान पर और उसी बेच पर छात्र सरदार भूलो बैठा है। उसे देखकर पहले एक बार हंसी आयी, लेकिन दूसरे ही क्षण आंखो मे आंसू डबडबा आये। फिर उसे भूलो के ऊपर कोध आया। मन में सोचा कि केवल उसी ने देवदास को घर से बाहर किया। इस तरह से बहुत दिन बीत गए। बहुत दिनों के बाद देवदास मकान पर लौटा। जल्दी से पार्वती के पास आया, नाना प्रकार ही बातचीत हुई। उसे अधिक बातचीत नहीं करनी थी - थी भी तो वह कर नही सकी। परंतु देवदास ने बहुत सी बाते कहीं । प्रायः सभी कलकत्ता की बाते थी । गर्मी की छुट्टी बीत गई, देवदास फिर कलकत्ता गया। इस बार भी रोना धोना हुआ, परंतु पिछली बार सी उसमे वह गंभीरता नही थी। इस तरह चार वर्ष बीत गये। इन कई वर्षों में देवदास के स्वभाव मे इतना परिवर्तन हुआ, जिसे देखकर पार्वती ने कई बार छिपे-छिपे आंसू गिराये । इसके पहले देवदास में जो ग्रामीण दोष थे, वे शहर में रहने से एकबारगी दूर हो गये। अब उसे डासन श , अच्छा सा कोट, पैंट, टाई, छड़ी, सोने की चेन और घड़ी, गोल्डन फेम का चश्मा आदि के न होने से बड़ी लज्जा लगती है। गांव की नदी के तौर पर घूमना अब उसे अच्छा नहीं लगता। और बदले में हाथ में बंदूक लेकर शिकार खेलने में विशेष आनंद मिलता हैं। छोटी मछली पकड़ने के बजाय बड़ी मछलियों के फंसाने की इच्छा है। यही क्यों - सामाजिक बात, राजनीतिक चर्चा, सभासमिति, क्रिकेट, फुटबाल आदि की आलोचनाएं होती हैं। हाय रे ! कहां वह पार्वती वह उन लोगो का ताल - सोनापुर गांव ! बाल्यकाल की दो-एक सुख की बातो का भी स्मरण न आता हो - ऐसा नही; किंतु अनेक प्रकार के कार्यभार के कारण वे बाते बहुत देर तक हृदय में जगह नहीं पाती। फिर गर्मी की छड़ी हुई । पिछले वर्ष की गर्मी की छुट्टी में देवदास विदेश घूमने चला गया था, घर नहीं गया था। इस बार माता-पिता के बहुत आग्रह करने पर और अनेको पत्र लिखने पर अपनी इच्छा न रहते हुए भी देवदास बिस्तर बांधकर सोनापुर गांव के लिए हावड़ा स्टेशन पर आया। जिस दिन वह घर आया उस दिन उसका शरीर कुछ अस्वस्थ था, तभी से बाहर नहीं निकला। दूसरे दिन पार्वती के घर पर आकर बुलाया -- ‘चाची !'
पार्वती की माता ने आदर के साथ कहा - 'आओ बेटा यहां आकर बैठो।' चाची के साथ कुछ क्षण बातचीत करने पर पूछा - 'पत्तो कहां है, चाची?"
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