जीवन मुक्ति विवेक हिंदी पुस्तक मुफ्त डाउनलोड | Jeevan Mukti Vivek Hindi Book Free Download

जीवन मुक्ति विवेक हिंदी पुस्तक मुफ्त डाउनलोड | Jeevan Mukti Vivek Hindi Book Free Download

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पुस्तक का साइज : 86.37 MB
कुल पृष्ठ : 218

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२ भाषाटीकास दितजीवन्पलाक्तिविवे के विरक्तिर्ज्िविघा प्राक्ता तीघ्रा तीघ्रतरोति च । सत्यामेत्र तु तीब्ायां न्पसेद्योगी कुटीचके ।। ४ 0 अर्थ --जैराग्य दो प्रकारका हें एक ताव बेराग्य दूसरा हवतर कैराग्य । इनमें से तीवैरास्य होनेपर योगी ऋकुटीचक समस्या घारण करे ॥ ४ ॥ चाक्तों बहुदके तीब्रतरायां हससाज्ञत | सुखुच्ुः परमे हसे साक्षाइज्ञानसाधन॥ ५ ॥। मूः--जो तीववैराग्यवान योगी शरीरसामध्यवाला हो तो बह बहुदेक #सन्न्यास ग्रहण करे । और तीावूतर वेराग्य होने पर इंस नाम को सन्न्यास लेवे परन्तु तीवतर वेराग्यवान पुरुष यदि मुक्ति चाहनेवाला हो तो वह साक्षात्‌ अपरोल्ष ज्ञान का साधनभूत परंमहंससनन्यास को स्तीकार करे ॥ ५ ॥। पुत्रदारग्ादीनां नादे तात्कालिकी सतिः । घिक संसार इतीटकू स्यादरक्तमन्दता 1 सा ॥६॥ अर्थः--जिस समय ख्री पुत्र गृह आदिकोंका नाश होता उस समय इस समार को घिक्कार है इस प्रकार की बुद्ध उपजनी है- उसको मन्दवेराग्य कहते हैं ॥। ६ ॥ आस्मिनू जन्मनि मा भूवन्पुत्रदारादूयों सम । इति था सास्थिरां बुद्धि सा बेराग्यस्थ तीज्ता ॥७॥। # जो स़न्न्यास्री यात्रा सफर आदिक में सामथ्य दीन हो- नेखे एकज़गह तीथस्यानादिक में कुटी बान्घ कर रहता प्रति दिन १२००० इजार प्रणवका जप करता ओर यथा समय भिक्षामाड्कर अपने आअमर्मे ब्रह्मध्यान करता वह कुदीचक है। ९ तीधटन करने वाले -सन्न्यासीकों बहुद क जानना | जीवन्पुक्तिमपाणप्रकरणमूं । 2 नह रस जन्म में मुझे खीपु्रादिक कोई भी पदार्थ न होवें इस प्रकार की जो सुस्थिरवुद्धि उस का नाम तीवूनैर।ग्य हू ॥ 3 ॥ पुनराशत्तसहितों लोको में सा5स्तु कश्बन । हाति तीबतरत्वं स्पान्मन्दे न्पासों न काडप दि।।८॥ अथ-- इस जन्म और पुनर्जन मुझ किसी भी खाक को इच्छा नहीं है ऐसी ढत्ति की सीवतर वैराग्य में गणना होताहें । मन्दवेराग्य में किसा सन्न्यासाश्रप का आधि- कार नहीं ॥ ८ ॥। यात्रायदाक्तिशाच्तिस्यां तीव्रे न्यासदय भवेत्‌ । कुदीचको बहुद्खत्युभावेतौी त्रिदण्डिनी ॥ ९ ॥ अथः--यात्रा आदि के निपित्त पर्ययटन करनेपें सामर्थ्य असामध्य के कारण तीवृवेराग्यवान्‌ पुरुष यथाक्र से कुटी- चक ओर बहुृदक नाम के दो सन्न्यासों को धारण करे | कुटीचक और बहूदक सन्न्यासी त्रिदण्डी होते हैं ॥ ९ ॥ डघं तीघ्रतरे न्रह्मलो कमी क्षाविं भेद्तः । तल्लोके तत्त्वविडंसो लोके ंस्मिन्परमहंसकः ॥१९०॥ अर्थ --तीवूवैराग्यवान योगी को यदि ब्रह्मलोक की इच्छा हो तो वह हंस नामक सन्न्पास को ग्रहण करें । बह श्रह्मछाक म आत्मसाझात्कार होने पर ब्रह्माके साथ मुक्ति पाता है । और यदि उक्त योगी को केवल मोक्ष ही की इच्छा हो हो बह परम हंस नामक आश्रम को सेवन करे । उस को वतेमान शरीर में ही आत्मसाक्षात्कार होता है ॥ १० ॥। एतेषां तु समाचारा। प्रोक्ताः पारादारस्सतो । # वा

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