मान – समीक्षण | Man – Samikshan

मान – समीक्षण | Man – Samikshan

मान – समीक्षण | Man – Samikshan के बारे में अधिक जानकारी :

इस पुस्तक का नाम : मान – समीक्षण है | इस पुस्तक के लेखक हैं : Acharya Shri Nanesh | Acharya Shri Nanesh की अन्य पुस्तकें पढने के लिए क्लिक करें : | इस पुस्तक का कुल साइज 2 MB है | पुस्तक में कुल 52 पृष्ठ हैं |नीचे मान – समीक्षण का डाउनलोड लिंक दिया गया है जहाँ से आप इस पुस्तक को मुफ्त डाउनलोड कर सकते हैं | मान – समीक्षण पुस्तक की श्रेणियां हैं : Spirituality -Adhyatm

Name of the Book is : Man – Samikshan | This Book is written by Acharya Shri Nanesh | To Read and Download More Books written by Acharya Shri Nanesh in Hindi, Please Click : | The size of this book is 2 MB | This Book has 52 Pages | The Download link of the book "Man – Samikshan " is given above, you can downlaod Man – Samikshan from the above link for free | Man – Samikshan is posted under following categories Spirituality -Adhyatm |


पुस्तक के लेखक :
पुस्तक की श्रेणी :
पुस्तक का साइज : 2 MB
कुल पृष्ठ : 52

Search On Amazon यदि इस पेज में कोई त्रुटी हो तो कृपया नीचे कमेन्ट में सूचित करें |
पुस्तक का एक अंश नीचे दिया गया है : यह अंश मशीनी टाइपिंग है, इसमें त्रुटियाँ संभव हैं, इसे पुस्तक का हिस्सा न माना जाये |

साधुत्व की पवित्र धारा को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए बडे-बडे आचार्यों ने अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। भगवान् महावीर के बाद अनेक बार आगमिक धरातल पर क्राति का प्रसग आया है, जिसका उद्देश्य श्रमण सस्कृति को अक्षुण्ण बनाये रखने का रहा है। ऐसी क्रान्ति-धारा मे क्रियोद्धारक महान् आचार्य श्री हुक्मीचन्द जी म सा का नाम विशेष रूप से उभरकर सामने आता है । तत्कालीन युग मे जहा शिथिलाचार व्यापक तौर पर फैलता जा रहा था, शुद्ध साधुत्व की स्थिति विरल ही परिलक्षित होती थी। बडे-बडे साधु भी मठो की तरह उपाश्रयो मे अपना स्थान जमाये हुए थे । चेलो के पीछे साधुता बिखरती जा रही थी। ऐसे युग मे आचार्य श्री हुक्मीचन्द जी म सा ने उपदेशो से नहीं अपितु अपने विशुद्ध एवं उत्कृष्ट सयममय जीवन से जनमानस को प्रभावित किया। आचार्य प्रवर केवल तपस्वी अथवा सयमी ही नही थे वरन् श्रमण सस्कृति के गहरे अध्येता श्रुतघर थे । आपके जीवन का ही प्रभाव था कि हजारो स्त्री-पुरुष आपके चरण सान्निध्य को पाने के लिए लालायित रहते थे । "तिन्नाण तारयाण' के आदर्श आचार्य प्रवर ने योग्य मुमुक्षुओ को दीक्षित किया और जो देशव्रती बनना चाहते थे, उन्हें देशव्रती बनाया। इस प्रकार सहज रूप से ही चतुर्विध संघ का प्रवर्तन हो गया।

You might also like
Leave A Reply

Your email address will not be published.