रसकपूर (एतिहासिक उपन्यास) | Raskapoor (Etihasik Upanyas)

रसकपूर (एतिहासिक उपन्यास) : ध्यान मखीजा हिंदी पुस्तक | Raskapoor (Etihasik Upanyas) : Dhyan Makhija Hindi Book

रसकपूर (एतिहासिक उपन्यास) : ध्यान मखीजा हिंदी पुस्तक | Raskapoor (Etihasik Upanyas) : Dhyan Makhija Hindi Book के बारे में अधिक जानकारी :

इस पुस्तक का नाम : रसकपूर (एतिहासिक उपन्यास) है | इस पुस्तक के लेखक हैं : Dhyan Makhija | Dhyan Makhija की अन्य पुस्तकें पढने के लिए क्लिक करें : | इस पुस्तक का कुल साइज 3.4 MB है | पुस्तक में कुल 116 पृष्ठ हैं |नीचे रसकपूर (एतिहासिक उपन्यास) का डाउनलोड लिंक दिया गया है जहाँ से आप इस पुस्तक को मुफ्त डाउनलोड कर सकते हैं | रसकपूर (एतिहासिक उपन्यास) पुस्तक की श्रेणियां हैं : history, Stories, Novels & Plays

Name of the Book is : Raskapoor (Etihasik Upanyas) | This Book is written by Dhyan Makhija | To Read and Download More Books written by Dhyan Makhija in Hindi, Please Click : | The size of this book is 3.4 MB | This Book has 116 Pages | The Download link of the book "Raskapoor (Etihasik Upanyas)" is given above, you can downlaod Raskapoor (Etihasik Upanyas) from the above link for free | Raskapoor (Etihasik Upanyas) is posted under following categories history, Stories, Novels & Plays |


पुस्तक के लेखक :
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पुस्तक का साइज : 3.4 MB
कुल पृष्ठ : 116

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कर दिया गया था । खजाने की खोज के लिये कई वयकतियों ने जी-तोड कोशिकों की परनतु उनहें सफलता नहीं मिली । यहा तक कि इमजंसी के दौरान ततकालीन केनदरीय सरकार ने भी लाखो रुपये वयय करके इस खजाने को ढूढ निकालने की वयापक खोज करवायी परनतु उसे भी निराश होना पडा । इस उपनयास का नायक महाराजा जगतसिह १८०३ ई० मे जयपुर की राजगददी पर बैठा था और मातर बततीस वष॑ को अवसथा मे ही सवरग सिघार गया था । अपने अतप जीवन-काल मे उसे अनेक युदध लडने पडे थे । युवा राजा कलापरेमी तो था ही एक परम सुनदरी नतंकी के परेमपाश मे वह बुरी तरह से जकड गया । रसकपुर नामक यह सुनदरी नृतय मे पारगत होने के साथ-साथ एक अचछी गायिका भी थी । महाराजा जगतरसिह ने रसकपूर को रानी के रूप मे सथापित करने की भरपूर चेषटा की उसके नाम का सिवका भी चलाया परनतु अपने सामनतो के घोर विरोध के कारण उसे मूह की खानी पड़ी रसकपूर कौन थी जयपुर मे केसे और कहा से आई थी इसका इति- हास नहीं मिलता । नाहरगढ किले की कद मे से भागकर वह कहा चली गई थी इसका भी इतिहास मे उललेख नही है । राजसथान-इतिहास के विशेषजञ कनंल टॉड और डा० दारमा केवल इतना ही लिखते हैं कि वह अदभूत सुनदरी नुतयपरवीणा और कोकिल-कणठा थी और महाराजा जगरतासिह उस पर दिलोजान से नयौछावर था । मुझे इस वात का सनतोप है कि मैंने इतिहास की सचचाई को ईमान- दारी से कायम रखते हुए इस उपनयास की रचना की है । राजसथान विशवविदयालय के इतिहास विभाग के अवकाश परापत अधयकष डा० माथुर लाल शरमा का मैं हृदय से आभारी हू जिनहोंने इति- हास के सही तथयो की जानकारी कराकर मुझे पुरा सहयोग दिया । जयपुर १-१-५८ -धयान माखीजा

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