धर्मरथ : स्वरूपानंद सरस्वतीजी महाराज | Dharmrath : Swaroopanand Saraswatiji Maharaj के बारे में अधिक जानकारी :
इस पुस्तक का नाम : धर्मरथ है | इस पुस्तक के लेखक हैं : Swaroopanand Saraswatiji Maharaj | Swaroopanand Saraswatiji Maharaj की अन्य पुस्तकें पढने के लिए क्लिक करें : Swaroopanand Saraswatiji Maharaj | इस पुस्तक का कुल साइज 15.6 MB है | पुस्तक में कुल 120 पृष्ठ हैं |नीचे धर्मरथ का डाउनलोड लिंक दिया गया है जहाँ से आप इस पुस्तक को मुफ्त डाउनलोड कर सकते हैं | धर्मरथ पुस्तक की श्रेणियां हैं : dharm, hindu
Name of the Book is : Dharmrath | This Book is written by Swaroopanand Saraswatiji Maharaj | To Read and Download More Books written by Swaroopanand Saraswatiji Maharaj in Hindi, Please Click : Swaroopanand Saraswatiji Maharaj | The size of this book is 15.6 MB | This Book has 120 Pages | The Download link of the book "Dharmrath" is given above, you can downlaod Dharmrath from the above link for free | Dharmrath is posted under following categories dharm, hindu |
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इसलिए रामचरितमानस | में भगवान् राम ने विभीषण को ‘धर्मरथ' का उपदेश दिया है।
अनन्तकाल से ऋषियों ने धर्म के असंख्य अर्थ किये हैं। जैसे - कर्तव्य, जाति, सम्प्रदायादि के आचार-पालन, कानून, प्रचलन, प्रथा, अध्यादेश, नैतिकगुण, उपकार, सत्कार्य, अधिकार, न्याय, औचित्य, निष्पक्षता, पवित्रता, शालीनता, नैतिकता, नीतिशास्त्र, स्वभाव, चरित्र, मूलगुण, विशेषता, लाक्षणिक गुण, यज्ञ, सत्संग, भक्ति, रीति, धार्मिक भावमग्नता, उपनिषद्, युधिष्ठिर व यमराज आदि । इसीप्रकार इन अर्थों के अनुरूप मनीषियों ने धर्म के अनेक लक्षण भी किये हैं । यथा -
धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः । धीविद्यासत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम् ।। - इति मनुस्मृतिः ।। श्रुतेविभिन्ना स्मृतयोविभिन्नाः नैकोमुनिर्यस्य मतं न भिन्नम् । धर्मस्यतत्त्वं निहितं गुहायां महाजनो येन गतस्स पन्थाः ।।
| - इति महाभारते । अष्टादशपुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम् ।। परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम् ।। चोदना लक्षणोऽधर्मः इति मीमांसायाम् । परहित सरिस धरम नहिं भाई । परपीडा सम नहिं अधमाई ।।
- रामचरितमानस जहाँ तक इसकी उपयोगिता का प्रश्न है । इस सन्दर्भ में विद्वानों का मत है कि मानव का सहयोग और साहचर्य संसार के सभी सम्बन्धी एक निश्चित समय और सीमा तक हीं कर पाते हैं । किन्तु जहाँ उनकी सीमा खत्म हो जाती है, वहाँ से परलोक तक विभिन्न रूपों में धर्म ही जीव का १. संस्कृत-हिन्दी कोश - वामनशिवराम आष्टे