जैन जगती | Jain Jagati
जैन जगती : दौलत सिंह | Jain Jagati : Daulat Singh के बारे में अधिक जानकारी :
इस पुस्तक का नाम : जैन जगती है | इस पुस्तक के लेखक हैं : Daulat Singh | Daulat Singh की अन्य पुस्तकें पढने के लिए क्लिक करें : Daulat Singh | इस पुस्तक का कुल साइज 28.3MB है | पुस्तक में कुल 474 पृष्ठ हैं |नीचे जैन जगती का डाउनलोड लिंक दिया गया है जहाँ से आप इस पुस्तक को मुफ्त डाउनलोड कर सकते हैं | जैन जगती पुस्तक की श्रेणियां हैं : dharm
Name of the Book is : Jain Jagati | This Book is written by Daulat Singh | To Read and Download More Books written by Daulat Singh in Hindi, Please Click : Daulat Singh | The size of this book is 28.3MB | This Book has 474 Pages | The Download link of the book "Jain Jagati" is given above, you can downlaod Jain Jagati from the above link for free | Jain Jagati is posted under following categories dharm |
पुस्तक का एक अंश नीचे दिया गया है : यह अंश मशीनी टाइपिंग है, इसमें त्रुटियाँ संभव हैं, इसे पुस्तक का हिस्सा न माना जाये |
तुम माठ के हो पनि तो है आठ की भी हो ! कहीं। तुमको सुतावत पत्नि से रतिचार में लज्जा नहीं।
मन्त हो, सरकार की भी हैं तुम्हें चिन्ता नहीं। दुपट्टा अगर मिल जाय तो कुक्कुर न हूँ' करता कहीं ।।४।। | आमन्त । आप वय में साठ वर्ष के हैं और आपकी नववधु आठ वर्ष भी कठिन की है । पुत्री की वयवाली नववधु से कामक्रीड़ा करते आपको कुछ भी शर्म नहीं आती। आप श्रीमन्त हैं। सरकार की भी अतः आपको कोई भय नहीं। कुत्ते को अगर रोटी का टुकड़ा मिल जाये तो कभी भी वह नहीं भू केगा।
रतिः रास, वैभव, ऐश में हो धन तुम्हारा खो रहे सत्कार्य में देते हुये हैं। कोहि काना में रहे। ऐसे धनी भी हैं कई जो पेट भर खात नहीं,
यदि मिल गई रोटी लड़द की, साग के पत्ते नहीं ॥५५॥ | है श्रीमंत ! आप का सब धन स्त्री-भोग-निद मार विषयरस में व्यय हो रहा है। सरकार्य में आप एक काना कोड़ी देते समय मर-से जाते हैं। आप में ऐसे धनी भी मिलेगे जो इच्छा
भर कभी भोजन भी नहीं करते और उन्हें अगर इद के पाटे 1 की बनी रोटी ( जिसको मिर्च-मसाला डाल कर बनाया जाता है ) मिल जाय तो वे साग भी न बनवायेंगे।
तुम छोड़कर निज पनि को वाम्बे, सितारे में रहो। हर ठौर तुमको पब्रि है, फिर व्यर्थ क्यों व्यय में रहो। उस ओर तुमको पनि है, इस ओर तुमको पुत्र है; धनवृद्धि के यों साथ में बढ़ता रहता कलत्र है !!||५६।।