यज़ुर्वेद्का सुबोध भाष्य हिंदी पुस्तक | Yazurvedka Subodh Bhashya Hindi Book

यज़ुर्वेद्का सुबोध भाष्य हिंदी पुस्तक | Yazurvedka Subodh Bhashya Hindi Book

यज़ुर्वेद्का सुबोध भाष्य हिंदी पुस्तक | Yazurvedka Subodh Bhashya Hindi Book के बारे में अधिक जानकारी :

इस पुस्तक का नाम : है | इस पुस्तक के लेखक हैं : | की अन्य पुस्तकें पढने के लिए क्लिक करें : | इस पुस्तक का कुल साइज 112.55 MB है | पुस्तक में कुल 675 पृष्ठ हैं |नीचे का डाउनलोड लिंक दिया गया है जहाँ से आप इस पुस्तक को मुफ्त डाउनलोड कर सकते हैं | पुस्तक की श्रेणियां हैं : dharm, hindu

Name of the Book is : | This Book is written by | To Read and Download More Books written by in Hindi, Please Click : | The size of this book is 112.55 MB | This Book has 675 Pages | The Download link of the book "" is given above, you can downlaod from the above link for free | is posted under following categories dharm, hindu |


पुस्तक की श्रेणी : ,
पुस्तक का साइज : 112.55 MB
कुल पृष्ठ : 675

Search On Amazon यदि इस पेज में कोई त्रुटी हो तो कृपया नीचे कमेन्ट में सूचित करें |
पुस्तक का एक अंश नीचे दिया गया है : यह अंश मशीनी टाइपिंग है, इसमें त्रुटियाँ संभव हैं, इसे पुस्तक का हिस्सा न माना जाये |

कण्डिका २-३ यजुर्वेदका सुबोध भाष्य ्छे वसों पवि्रमसि झतधार दसों पविज्रंमसि सहसंधारमूं । हेवस्त्वां सविता पुंनातु वसों परविज्नेंण झातर्धारिण सुप्व|ँ कामंघुक्षं ॥३॥ ३ वसोः शतधारं पवित्र असि तू सैकडों धाराओसे युक्त वसुओंकी शुद्धता करनेका साधन है । वसोः सहस्रधारं पवित्रं असि तू हजारों धाराओंसे युक्त वसुओंकी शुद्धि करनेका साधन है । सुप्बा सविता देव शतधारण बसो पवित्रेण त्वा पुनातु भली भाँति पवित्र करनेहारा सबका निर्माता देव सैकडों धाराओंसे युक्त वसुओंको पवित्र करनेके साधनसे तुझे पवित्र करे । कां अधुक्ष तूने किस गायका दूध दुहलिया है भला ? ॥1३॥1 वायुको अपने अधीन रख इस शरीरकों उष्णता प्रदान करता है वह मैं ही हूँ ऐसा ज्ञान यहाँपर मिलता है । विश्वधा असि - तू सबका धारक है । पहलेकी हुई चचमिं बतलाया जा चुका है कि यह जीवात्मा त्रिलोकका धारक है । त्रिलोक ही विश्व है । जैसे परमात्मा ब्रह्माण्डके अंतर्भूत विश्वको धारण करता है वैसेही यह जीवात्मा पिण्डमें पाये जानेवाले विश्वको धारण करती हैं । जिस समय यह पिण्डका धारण-कर्ता जीव शरीर छोड़ निकल जाता है तब यह शरीर छिन्नभिन्न हो सड़ने लगता है । इससे विदित होता है कि यज्ञ इस विश्वको कैसे धारण करता है । ब्रहमाण्डके विश्वका धारक परमात्मा है और जीवात्मा पिण्डके विश्वकों धारण करनेवाला है । पहला परम-पिता है और दूसरा उसका अमृत-पुत्र है । पिताके आश्रयसे पुत्र बढता है और अगले मंत्रभागमें यही बात कही है । परमेण धाम्ना दूंहस्व तू परम धामकी सहायतासे बढ । परम धाम का अर्थ है बडा घर परमात्माका अर्थात्‌ इस जीवात्माके पिताका है । इस जीवका सूक्ष्म धाम है । अपनी शक्तिको विकसित कर इस सूक्ष्म धामकों विस्तृत विशाल एवं महान्‌ करना है । परमधाममें सूर्य जैसे जो दिव्य पदार्थ हैं उन्हींके अंश इस अपने सूक्ष्म धाममें नेत्र आदि स्थानोंमें सूक्ष्म रूपमें वर्तमान हैं । इसलिए सूर्य प्रकाशसे नेत्रकी शक्ति बढ़ती है और अंघेरेसे घट जाती है । वायुकी सहायतासे प्राणशक्ति बढती है और ढके हुए कमरेमें रहनेसे न्यून होती है । विश्वमें जो महान्‌ तत्व पाये जाते हैं उनकी सहायतासे अपनी देहके सूक्ष्म तत्व विकसित करने चाहिए। यह उन्नतिका नियम है और इसी सिद्धान्तपर प्रगतिके सभी नियम निर्भर है । इसी से मंत्रमें कहा है कि तू परम धामकी सहायतासे अपने सूक्ष्म धामकों दृढ़ बना । मा हवा > कुटिल न बन क्योंकि कुटिलतासे मनुष्यका विनाश होता हैं । प्रारंभमें मानव भूलसे ऐसा समझता है कि कुटिलतासे बह लाभ उठा रहा है पर यदि अंततक विचार किया जाये तो विदित होगा कि टेढे वर्तावसे अपनीही हानि होती है । ते यज्ञपति मा ढ्वार्षीत्‌ तेरा यज्ञपति कुटिल न बने । जिस कार्यके लिए तू अपनी सारी शक्ति लगा रहा है वह यदि सार्वजनिक महत्वपूर्ण कार्य हो तो उस संघका जो कोई प्रमुख संचालक रहे वह भी कुटिल न बने क्योंकि यदि वह कुटिल मार्गपर चलने लगेगा तो उसके सभी अनुयायी श्रान्‍्त हो जायेंगे और सरल सत्यपूर्ण व्यवहार छोड देगे जिसके घोर परिणाम सबको भोगने पड़ेंगे । इसीलिए इस यजुर्वेदमें जिन कर्मोको करनेके लिए आदेश दिये हैं वे सभी अ-ध्वर अर्थात्‌ अकुटिल कर्म अहिंसापूर्ण कर्म कहलाते हैं । इन्हीं कर्मोकी यज्ञ संज्ञा है । इन दो मंत्रभागोंका अर्थ है कि समुदायका हरएक व्यक्ति समूचा संघ और संघका नेता सभी सरल व्यवहारके अभ्यस्त बनें और कोई भी कुटिलताका आश्रय न ले 11२11 वसो शतधारं सहस्रधारं पवित्रं असि - तू ऐसा साधन है कि जिसमें सैकडों तथा सहस्रों धाराएं हैं और जिससे वसु पवित्र किए जाते हैं । इस मंत्रभागने दर्शाया है कि इस शरीरमें और इस विश्वमें अनन्त प्रकारॉंसे जीवात्मामें विधमान शक्ति कार्य करती रहती है । परम धाममें निवास करनेहारा परमात्मा इस जीवात्माका परम पिता है और वह भी पूर्वोक्त आठ वसुऑओंको पवित्र करनेकी सर्वोपरी शक्ति धारण करता है तथा उस शक्तिके सहसों प्रवाहोंसे समूचे विश्वको पुनीत करनेका कार्य कर रहा ह। अगले मंत्रभागमें कहा हैं कि वह तेरा-मानवका-शुद्धिकरण करे । सुप्बा सविता देव शतधारेण चसों पवित्रेण त्वा पुनातु । > अच्छी तरह सबको पवित्र करनेहारा तथा सबका सुजनकर्ता देव वसुओको सैकर्डों धाराओंसे पवित्र करनेवाले साधनके

You might also like
Leave A Reply

Your email address will not be published.